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में० २ सू० १३ १९

(सूक्ष्म चेतन प्रवाहो अथवा श्रेष्ठ कर्म-रत व्यक्तियों, यजमानों में से) एक जो कुछ देता है, उसके सम्बन्ध में

जानकारी देता चलता दै । एक ( प्राप्त कमु ओं के) रूपों में भेद करता (अंतर समझाता) चलता है । एक हटाने

योग्य को हटाकर शोधन करता चलता है । हे इन्द्रदेव ! आपने पहले ही इन सब कर्मों को सम्पन्न किया, इसलिए

आप प्रशंसनीय हैं ॥३ ॥

२१३५ प्रजाभ्यः पुष्टं विधजन्त आसते रयिमिव पृष्ठं प्रभवन्तमायते ।

असिन्वन्दष्टैः पितुरत्ति भोजनं यस्ताकृणोः प्रथमं सास्युक्थ्यः ॥४ ॥

(देवगण) अभ्यागतो की तरह प्रजा के लिए ऐश्वर्य तधा पोषक अन प्रदान करते हैं । जिस प्रकार मनुष्य अपने

दाँतों से चबाकर भोजन खाता है, उसी प्रकार आप (प्रलय काल में) समस्त जगत्‌ को खा जाते हैं इन किये गये

हितकारी कार्यों के लिए आप प्रशंसा के योग्य हैं ॥४ ॥

२१३६. अधाकृणोः पृथिवीं सन्दृशे दिवे यो धौतीनामहिहज्नारिणक्पथ: ।

तं त्वा स्तोमेभिरुदभिर्न वाजिनं देवं देवा अजनन्त्सास्युक्ध्य: ॥५ ॥

हे वृत्रनाशक इन्द्रदेव ! आपने नदियों को प्रवाहित होने का मार्ग प्रशस्त किया और सूर्य के प्रकाश में दर्शनीय

पृथिवी को स्थापित किया । जिस प्रकार ओषधियों को जल से सीचकर पुष्टिकारक बनाते हैं, उसी प्रकार स्तोत्रों

के माध्यम से स्तुतियाँ करके साधक आपको बलशाली बनाते हैं । इस प्रकार आप प्रशंसा के योग्य हैं ॥५ ॥

२१३७ यो भोजनं च दयसे च वर्थनमार्दादा शुष्कं मधुमददुदोहिथ ।

सः शेवधिं नि दधिषे विवस्वति विश्वस्यैक ईशिषे सास्युक्थ्यः ॥६ ॥

हे इन्रदेव ! आप (प्राणियों को) वृद्धि के साधन तथा भोजन प्रदान करते हैं । गीते पौधों से म र सूखे पदार्थ

(फल या अन्न प्राप्त कराते है । ऐश्वर्य प्रदान करने वाले आप अकेले हो सम्पूर्ण विश्व के स्वामी हे । अत: आप

प्रशंसा के योग्य हैं ॥६ ॥

२१३८. यः पुष्पिणीश्च प्रस्वश्च धर्मणाथि दाने व्यशवनीरधारय: ।

यश्चासमा अजनो दिद्युतो दिव उरुरूवी अभितः सास्युक्थ्यः ॥७ ॥

हे इन्द्रदेव | आपने खेतों सफल व फल वाली ओषधियों को गुणवान्‌ बनाकर उनका संरक्षण किया है ।

आपने प्रकाशित सूर्य को नाना किरणे प्रदान कौ । । आपकी महानता से हो सुदूर तक विस्तृत पर्वतों का प्रादुर्भाव

हुआ । ऐसे महान्‌ आप प्रशंसा के योग्य हैं ॥७ ॥

२१३९. यो नार्मरं सहवसुं निहन्तवे पक्षाय च दासवेशाय चावहः ।

ऊर्जयन्त्या अपरिविष्टमास्यमुतैवाद्य पुरुकृत्सास्युक्थ्यः ॥८ ॥

हे बहुकर्मा इन्द्रदेव ! आपने दस्युओं के विनाश के उद्देश्य से ृमर के पुत्र सहसवसु को बलशाली वत्र के

वार से मारा तथा अन्नादि प्राप्त किया, अत: आप प्रशंसा के योग्य हैं ॥८ ॥

२९४०. शत॑ वा यस्य दश साकमाद्य एकस्य श्रुष्टौ यद्ध चोदमाविथ ।

अरज्जौ दस्यन्त्मुनब्दभीतये सुप्राव्यो अभवः सास्युक्थ्यः ॥९ ॥

है इन्द्रदेव आपने दानशील यजमान के सुख के लिए संरक्षण प्रदान किया, आपके रथ को दस सौ

(हजारों) अश्च खींचते है । आपने रस्सी से बाँधे बिना दभोति ऋषि के दस्युओ को नष्ट किया और उनके श्रेष्ठ

मित्र बने आप प्रशंसा के योग्य हैं ॥९ ॥

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