उत्तरपर्व ]
+ सरस्वतीग्रतका विधान और फल +
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शान्तित्रत
भगवान् श्रीकृष्ण बोले-- महाराज ! अब मैं पक्रमी-
कल्पमें शान्तव्रतका वर्णन करता हूँ। इसके करनेसे गृहस्थोंको
सब प्रकारकी शान्ति प्राप्त होती है। कार्तिक मासके शुक्ल
पक्की पञ्चमीसे लैकर एक वर्षपर्यन्त खट्टे पदार्थोका
भोजन न करे। नक्तत्रत कर शेषनागके ऊपर स्थित भगवान्
विष्णुका पूजन करे और निम्नलिखित मन्त्रोंसे उनके अङ्गौकौ
पूजा करे
*ॐ अनन्ताय नम: पादौ पूजयामि'से भगवान् विष्णुके
दोनों चैकी, "ॐ धृतराष्ट्रीय नमः कटि पूजयामि" से
करि-प्रदेशकी, "ॐ तक्षकाय नपः उद्र पूजयापि" से
उदरदेशकी, ॐ कर्कोटकाय नमः उरः पूजयापि "से
हृदयौ, * ॐ पदाय नमः कणों पूजयापि, से दोनों कानोंकी,
"ॐ महापद्माय नमः दोर्युगं पूजयामि'से दोनों भुजाओंकी,
" ॐ शद्भुपालाय नम: वशः पूजयामि'से वक्षःस्यलकी तथा
"ॐ कुलिकाय नमः शिरः पूजयामि" से उनके मस्तककी
पूजा करें। तदनन्तर मौन हो भगवान् विष्णुको दूधसे स्नान
कराये, फिर दुग्ध और तिलॉसे हवन करे। वर्ष पूरा होनेपर
नारायण तथा शेषनागकी सुवर्णप्रतिमा बनवाकर उनका पूजन
कर ब्राह्मणको दान दे, साथ हो उसे सवत्सा गौ, पायससे पूर्ण
कॉस्पपात्र, दो वस्र और यथाशक्ति सुवर्ण भी प्रदान करे ।
तत्पश्चात् ब्राह्मण-भोजन कराकर चत समाप्त करे । जो व्यक्ति
इस व्रतको भक्तिपर्वक करता है, वह नित्य शान्ति प्राप्त करता
है और उसे नागोंका कभी भी कोई भय नहीं रहता।
(अध्याय ३४)
सरस्वतीत्रतका विधान और फल
राजा युधिष्ठिरने पृष्ठा - गवन ! किस ब्रतके करनेसे
वाणी मधुर होती है? प्राणीको सौभाग्य प्राप्त होता है?
विद्यामें अतिकौशल प्राप्त होता है?, पति-पत्नीका और
अन्धुजनोका कभी वियोग नहीं होता तथा दीर्घ आयुष्य प्रप्त
होता है ? उसे आप बतलायें।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले --राजन् ! आपने बहुत उत्तम
यात पूछी है । इन फलोको देनेवाले सारस्वतत्रतका विधान
आप सुनें | इस व्रतके कीर्तनमात्रसे भी भगवती सरस्वती प्रसन्न
हो जाती हैं। इस ब्रतको वत्सरारम्भ चैत्र मासके शुक्ल
पक्षकी पञ्रमीकों आदित्यवारसे प्रारम्भ करना चाहिये । इस
दिन भक्तिपूर्वक ब्राह्मणके द्वारा स्वस्तियाचन कराकर गन्ध, श्वेत
माला, शुक्ल अक्षत और श्वेत वस्नादि उपचारोंसे, वीणा,
अक्षमाला, कमण्डलु तथा पुस्तक धारण की हुई एवं सभी
अलंकारोंसे अलंकृत भगवती गायत्रीका पूजन करे । फिर हाथ
ओड़कर इन मन्त्र प्रार्थना करें--
यथा तु देवि भगवान् ब्रह्मा लोकपितामहः ।
त्वां परित्यज्य नो तिष्ठेत् तथा भव वरप्रदा ॥
केदशाख्राणि सर्वाणि नृत्यगीतादिकं च यत् ।
याहिते यत् स्वया देवि तथा मे सन्तु सिद्धयः ॥
लक्ष्मीर्मेधा वरा रिष्टिगौरी तुष्टिः अभा मतिः।
एताभिः पाहि तनुभिरषटाभि्मां सरस्वति ॥
(उक््प्व ३५५ । ७--९)
देवि ! जिस प्रकार लोकपितामह ब्रह्मा आपका
परित्यागकर कभी अलग नहीं रहते, उसी प्रकार आप हमें भी
चर दीजिये कि हमारा भी कभी अपने परिवारके लोगॉसे
वियोग न हो। हे देवि! वेदादि सम्पूर्ण शास्त्र तथा
नृत्य-गीतादि जो भी विद्याएँ हैं, वे सभी आपके अधिष्ठानमें ही
रहती हैं, वे सभी मुझे प्राप्त हों। हे भगवती सरस्वती देवि !
आप अपनी--लक्ष्मी, मेधा, वर, रिषि, गौरी, तुष्टि, प्रभा
तथा मति--इन आठ मूर्तियोंके द्वारा मेरी रक्षा करें।'
इस विधिसे प्रार्थनाकर मौन होकर भोजन करे । प्रत्येक
मासके शुक्ल पक्षकी पश्चमीको सुवासिनी स्त््यॉंका भी पूजन
करे और उन्हें तिल तथा चावल, घृतपात्र, दुग्ध तथा सुवर्ण
प्रदान करे और देते समय “गायत्री प्रीयताम् ऐसा उच्चारण
करे। सायंकाल मौन रहे। इस तरह वर्षभर त्रत करे । ब्रतकी
समाप्तिपर ब्राह्मणको भोजनके लिये पूर्णपात्रमें चावल भरकर
प्रदान करें। साथ ही दो श्वेत वख, सवसा गौ, चन्दन आदि
भी दे। देवीको निवेदिते किये गये वितान, घण्टा, अन्न आदि
पदार्थ भी ब्राह्मणको दान कर दे । पूज्य गुरुका भी चख, माल्य
तथा धन-धान्यसे पूजन करे । इस विधिसे जो पुरुष सारस्वत