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* पुराणौ परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् #
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क
त्रत करता है, वह विद्धान्, धनवान् और मधुर कण्टकाला होता
है। भगवती सःस्वतोकी कृपासे वह वेदव्यासके समान कवि
हो जाता है। नारी भी यदि इस व्रतका पालन करे तो उसे भी
पूर्वोक्त फल आप्त होता है। (अध्याय ३५-३६)
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श्रीपञ्चमीव्रत-कथा
राजा युधिष्ठिरे पृछा-- भगवन् ! तीनों लोकॉमें
लक्ष्मी दुर्लभ है; पर क्त, होम, तप, जप, नमस्कार आदि
किस कर्मके करनेसे स्थिर लक्ष्मी प्राप्त होती है आप सब
कुछ जाननेवाले हैं, कृपाकर उसका वर्णन करें।
भगवान् श्रीकृष्ण खोल्ले--महाराज ! सुना जाता है
कि प्राचीन कालमें भृगुमुनिक 'ख्याति' नामकी खीसे
लक्ष्मीका आविर्भाव हुआ। भृगुने चिष्णुभगवानके साथ
लक्ष्मीका विवाह कर दिया । लक्ष्मी भी संसारके पति भगवान्
विष्णुको वरके रूपमे प्राप्तकर अपनेको कृतार्थं मानकर अपने
कृपाकटाक्षसे सम्पूर्ण जगत्छो आनन्दित करने लगी । उन्हींसे
प्रजाओमें कषेम और सुभिक्ष होने लगा । सभी उपद्रव शान्त हो
गये । ब्राह्मण हवन करने लगे, देवगण हविष्य- भोजन प्राप्त
करने लगे और राजा प्रसन्नतापूर्वक चारों वर्णोंकी रक्षा करने
लगे। इस प्रकार देवगणोको अतीव आनन्दमें निमम देखकर
विरोचन आदि दैत्यगण लक्ष्मीकी प्राप्तिके लिये तपस्या एवं
यज्ञ-यागादि करने लगे। वे सब भी सदाचारी और धार्मिक हो
गये । फिर दैत्योंके पराक्रमसे सारा संसार आक्रान्त हो गया ।
कुछ समय बाद देवताओंको लक्ष्मीका मद हो गया, उन
लोगेकि शौच, पवित्रता, सत्यता और सभी उत्तम आचार नष्ट
होने लगे। देवताओंको सत्य आदि शील तथा पवित्रतासे
रहित देखकर लक्ष्मी दैत्योंक पास चली गयी और देवगण
श्रीविहीन हो गये । दैत्योंको भी लक्ष्मीकी प्राप्ति होते ही बहुत
गर्व हो गया और दैत्यगण परस्पर कहने लगे कि “मैं ही देवता
हूँ मैं ही यज्ञ हूँ, मैं हो ब्राह्मण हूँ, सम्पूर्णं जगत् मेरा ही स्वरूप
है, ब्रह्मा, विष्णु, इन्र, चन्र आदि सब मैं ही हूँ।' इस प्रकार
अतिशय अहंकारयुक्त हो वे अनेक प्रकारका अनर्थं करने
लगे। अहंकारमति दैत्योंकी भी यह दशा देखकर व्याकुल हो
वह भृगुकन्या भगवती लक्ष्मी क्षीरसागरमें प्रविष्ट हो गयीं।
क्षीरसागरमें लक्ष्मीके प्रवेश करनेसे तीनों लोक श्रीनिहोन
होकर अत्यन्त निस्तेज-से हो गये।
देवराज इच्नने अपने गुरु बृहस्पतिसे पूछा--
महाराज ! कोई ऐसा ग्रत बताये, जिसका अनुष्ठान करनेसे
पुनः स्थिर लक्ष्मीकी प्राप्ति हो जाय !
देवगुरु बृहस्पति बोले--देवेन्द्र ! मैं इस सम्बन्धमें
आपको अत्यन्त गोपनीय श्रीपश्षमी-त्रतका विधान बतलाता
हूँ। इसके करनेसे आपका अभीष्ट सिद्ध होगा। ऐसा कहकर
देवगुरु बृहस्पतिने देवराज इन्द्रको श्रीपञ्चमी-व्रतको साङ्गोपाङ्ग
विधि बतलायी। तदनुसार इनदर उसका विधिवत् आचरण
किया । इन्द्रको त्रत करते देखकर विष्णु आदि सभी देवता,
दैत्य, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, सिद्ध, विद्याधर, नाग,
ब्राह्मण, ऋषिगण तथा यजागण भी यह व्रत करने लगे । कुछ
कालके अनन्तर त्रत समाप्तकर उत्तम बल और तेज पाकर
सबने विचार किया कि समुद्रकों मथकर लक्ष्मी और अमृतको
ग्रहण करना चाहिये । यह विचारकर देवता और अमुर
मन्दरपर्वतको मथानी और वासुकिनागकों रस्सी बनाकर
समुद्र-मन्थने करने लगे। फलस्वरूप सर्वप्रथम शीतल
किरणोंवाले अति उज्ज्वल चन्द्रमा प्रकट हुए, फिर देवी
लक्ष्मीका प्रादुर्भाव हुआ । लक्ष्मीके कृपाकटाक्षको पाकर सभी
देवता और दैत्य परम आनन्दित हो गये। भगवती लक्ष्मीने
भगवान् विष्णुके वक्षःस्थलका आश्रय ग्रहण किया, भगवान्
किण्णुने इस त्रतको किया था, फलस्वरूप लक्ष्मीने इनका वरण
किया। इन्द्रौ यजस-भावसे व्रत किया था, इसलिये उन्होंने
ब्रिभुवनका राज्य प्राप्त किया । दैत्पोंति तामस-भावसे ब्रत किया
था, इसलिये ऐश्वर्य पाकर भी बे ऐश्वर्यहीन हो गये । महाराज !
इस प्रकार इस ब्रतके प्रभावसे श्रीविहीन सम्पूर्ण जगत् फिरसे
श्रीयुक्त हो गया।
महाराज युधिष्ठिरने पूछा--यदूतम ! यह श्रीपक्षमी-
त्रत किस विधिसे किया जाता है, कबसे यह प्रारम्भ होता
है और इसकी पारणा कब होती है? आप इसे बतानेको
कृपा करें।
भगवान् श्रीकृष्ण खोले--महाराज ! यह व्रत मार्ग-
शीर्ष मासके शुक्ल पक्षकी पद्धमीकों करना चाहिये। प्रातः