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१८ ऋग्वेद संहिता धाग-१

२१२७. यः शम्बरं पर्वतेषु क्षियन्तं चत्वारिश्यां शरद्यन्वविन्दत्‌ ।

ओजायमानं यो अहिं जघान दानुं शयानं स जनास इन्रः ॥१९ ॥

हे मनुष्यो ! जिनने चालीसवें वर्ष मे पर्वत में छिपे हर शंबर राक्षस को ढूँढ़ निकाला, जिनने जल को रोककर

रखने वाले सोये हुए असुर वृत्र को मारा, वे ही इन्द्रदेव हैं ॥११ ॥

२१२८. यः सप्तरश्मिर्वृषभस्तुविष्मानवासूजत्सर्तवे सप्त सिन्धून्‌ ।

यो रौहिणपस्फुरदजबाहुर्द्यामारोहन्तं स जनास इन्द्र: ॥१२॥

मतु ! जिनने सात नदियों को सूर्य की सात किरणों की भांति बलशाली ओर ओजस्वी रूप पे प्रभावित

किया, जिनने च्युलोक की ओर चढ़ती रोहिणी को अपने हाथ के वन्न से रोक लिया, वे ही इन्द्रदेव हैं ॥१२ ॥

२१२९. दावा चिदस्मै पृथिवी नमेते शुष्माच्चिदस्य पर्वता भयन्ते ।

यः सोमपा निचितो वच्रबाहर्यो वब्रहस्तः स जनास इन्द्र: ॥१३॥

हे मनुष्यो ! जिनके प्रति द्युलोक तथा पृथिवी लोक गमनशील हैं, जिनके बल से पर्वत भयभोत रहते हैं, जो

सोमपान करने वाले, वज्र के समान भुजाओं वाले तथा शरोर से महान्‌ बलशाली दै वे ही इन्द्रदेव हैं ॥१३ ॥

२१३०. यः सुन्वन्तमवति यः पचन्तं यः शंसन्तं यः शशमानमूती ।

यस्य ब्रह्म वर्धनं यस्य सोमो यस्येदं राधः स जनास इनदरः ॥९४॥

हे मनुष्यो ! जो सोमरस निकालने वाले, शोधित करने वाले, स्तोत्र के द्वारा स्तुतियौ करने वाते को, अपने

रक्षा साधनों से संरक्षण प्रदान करते है, जिनके स्तोत्र एवं सोम हमारे ऐश्वर्य को बढ़ाने वाला है, वे ही इन्द्रदेव हैं ॥१४ ।

२१३१. यः सुन्वते पचते दुश्च आ चिद्राजं दर्दर्षि स किलासि सत्य:।

वयं त इन्द्र विश्वह प्रियासः सुवीरासो विदथमा वदेम ॥१५ ॥

जो सोमयज्ञ करने वाले तथा सोमरस को शोधित करने वाते याजक को धन प्रदान करते ह वे निश्चित रूप

से सत्यरूप इन्द्रदेव है । हे इद्धदेव ! हम सन्तति युक्त प्रियजनो के साय सदैव आपका यशोगान करें ॥१५ ॥

[ सूक्त - १३ |

[ऋषि- गृत्समद (आङ्गिरस शौनहोत्र पश्चाद्‌ ) भार्गव शौनक । देवता- अग्नि | छन्द ~ जगती, १३ तिष्ट॒प्‌ ।]

२१३२. ऋतुर्जनित्री तस्या अपस्परि पक्ष जात आविशद्यामु वर्धते ।

तदाहना अभवत्‌ पिष्युषी प्योऽशोः पीयुष प्रथमं तदुक्थ्यम्‌ ॥१ ॥

वर्षा से सोम की उत्पतति होती है, बह सोप जल में (मिश्रित होकर) बढ़ता है । श्रेष्ठ रस वाली लता (सोम

बल्ली) कूटकर सोपरस निकालने योग्य होती है । यह प्रशंसनीय सोमरस इन्द्रदेव का हविष्यान्न है ॥१ ॥

२१३३. सध्रीमा यन्ति परि विभ्रतीः पयो विश्वप्न्याय प्र भरन्त भोजनम्‌।

समानो अध्वा प्रवतामनुष्यदे यस्ताकृणोः प्रथमं सास्युक्थ्यः ॥२॥

सभी नदियाँ प्रवाहित होती (ॐ स को जल से भरकर मानो भोजन कराती हैं । हे इन्द्रदेव | यह अभूतपूर्व

कार्य करने वाले आप प्रशंसा के ई ॥२॥

२१३४. अन्वेको वदति यद्ददाति तद्रूपा मिनन्तदपा एक ईयते ।

विश्वा एकस्य विनुदस्तितिक्षते यस्ताकृणोः प्रथमे सास्युक्थ्यः ॥३ ॥

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