* अग्निपुराण *
सिद्धोंका शरीर भी छः प्रकारक न्यासोंसे नियन्त्रित | वर्णन किया गया है ॥ १७ - २३ ॥
होनेके कारण इनके आत्मके समान जातिका ही
(सच्विदानन्दमय) हो गया है। मण्डलमें फूल
विखेरकर मण्डलॉकी पूजा करे । अनन्त, महान्,
शिवपादुका, महाव्यात्ति, शून्य, पश्मतत्त्वात्मक-
मण्डल, श्रीकण्ठनाथ- पादुका, शंकर एवं अनन्तकी
भी पूजा करे॥ १२--१६॥
सदाशिव, पिङ्गल, भृग्वानन्द, नाथ-समुदाय
लाङ्गुलानन्द और संवर्त -इन सबका मण्डल-
स्थानम पूजन करे । नैर््रत्यकोणमें श्रीमहाकाल
पिनाकी, महेन्द्र, खड्ग, नाग, बाण, अघासि
(पापका छेदन करनेके लिये खदगरूप), शब्द्,
वश, आज्ञारूप और नम्दरूप --इनको बलि अर्पित
करके क्रमशः इनका पूजन करे। इसके बाद
वटुकको अर्घ्य, पुष्य, धूप, दीप, गन्ध एवं बलि
तथा क्षत्रपालको गन्ध, पुष्प और बलि अर्पित
करे । इसके लिये मन्त्र इस प्रकार है --' हीं खं खं
हं सौ वटुकाय अरु अरु अर्ध्यं पुष्यं धूपं दीपं गन्धं
बलिं पूजां गृह गृह नमस्तुभ्यम्! ॐ हां हीं हूं
्षित्रपालायावतरावतर महाकपिलजटाभार भास्वर
त्रिनेत्र ज्वालामुख एड्लोहि गन्धपुष्ययलिपूजां गृह
गृह्य खः खः ॐ कः ॐ लः ॐ महाडामराधिफतये
स्वाहा ।' बलिके अन्ते दाये - गाये तथा सामने
त्रिकूटका पूजन करे; इसके लिये मन्त्र इस प्रकार
ह हां श्रीं त्रिकूटाय नमः।' फिर वाये
, दाहिने तमोऽरिनाथ (या सूर्यनाथ) -
की तथा सामने कालानलकी पादुकाओंका यजन-
पूजन करे । तदनन्तर उङ्कियान, जालन्धर, पूर्णगिरि
तथा कामरूपका पूजन करना ` चाहिये! फिर
गगनानन्ददेव, वर्गसहित स्वर्गानन्ददेव, परमानन्ददेव,
सत्यानन्ददेवकौ पादुका तथा नागानन्ददेवक पूजा
उत्तर ओर. ईशानकोणमें इन छ:की पूजा
करे--सुरनाथकी पादुकाको, श्रीमान् समयकोटी श्वरकी
विद्याकोटी धरकी, कोटीश्वरकी, बिन्दुकोरीश्चरकौ
तथा सिद्धकोटी श्वरकी। अग्निकोणे चार* सिद्ध-
समुदायकौ तथा अमरीशेश्वर, चक्रौशेश्वर, कुरङ्गे धर,
वृत्रेशर और चन्द्रनांथ या चन्द्रेश्वकी पूजा करे।
इन सबको गन्ध आदि पश्ञोपचारोंसे पूजा
करनी चाहिये। दक्षिण दिशा अनादि विमल,
सर्वज्ञ विपलें, योगीश विमलं, सिद्ध विमले और
समय 'विमल-इन पाँच विपर्लौका पूजन
करे॥ ३४-- २७ ६॥
नैक्रत्यकीणमें चार वेदोंका, कंदर्पनाँथंकां,
पूर्वो सम्पूर्ण शक्तिर्योका तथा “कुब्जिकाकी
श्रीपादुकाको पूजन करें। इनमें कुब्जिकाकी पूजा
"ॐ हां ही कुंब्जिकांये नंम:।"-+ इस नवाक्षर
मन्त्रसे अथवा केवल पाँच प्रणवरूप मन्त्रसे करें।
पूर्व दिशासे लेकर ईशानकोण-पर्यन्त ब्रह्मा; इन्द्र,
अग्नि, यम, निर्क्रति, अनन्त, वरुण, वायु, कुबेर
तथा ईशान --इन दस दिक्पा्लोँकी पूजा करे ।
सहस्ननेत्रधारी इन्द्र. अनक्द्य विष्णु तथा शिवकौ
पूजा सदा ही करनी चाहिये । ब्रह्माणी; महे धरी,
कौमारी, वैष्णवी, वाराही; एनी, चामुण्डा तथा
महालक्ष्मी --इनकी पूजा पूर्वं ` दिशासे लेकर
ईशानकोण-पर्यन्त आठ ` दिशाओमिं ` क्रमश
करे॥ २८-३१॥
तदनन्तर वायव्यकोणसेः छः उग्र दिशाओंमें
क्रमशः डाकिनी, राकिनी; लाकिनी; ` काकिनी,
शाकिनी तथा याकिनी --इनकी पूजा करे। तत्पश्चात्
ध्यानपूर्वकं कुब्जिकादेवीका-पूजन ` करना चाहिये ।
बत्तीस व्यञ्जन अक्षर 'हौ उनका शरीर है । उनके
करे। इस प्रकार “वर्ग” नामक पशञ्चरत्नका तुमसे | पूजने पाँच प्रणव अथवा हीं” का बीजरूपसे
मन्तरमहोदधि १२। ३७ के अॐनुस्र चार 'सिद्धौप' गुरु है । यथा ~ योगक्रीड, सपय, सहज और परायर। पूनाका य~
'योगक्रौडानन्दनाधाय नमः, समवानन्दनाथाय नमरः ' इत्यादि ।