अध्याय डक ]
सभर्य॑सम्भ्रम॑ बत्स ॒मद्रौरवकृतं त्यज।
प्रह्नादजीका दैत्यपुत्रॉंकों उपदेश देना
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"वत्स ! मेरे प्रति गौरव-युद्धिसे होनेवाले इस भय
जैव प्रियो मे भक्तेषु स्वाधीनप्रणयी भव ॥ ७१ | और घबराहटको त्याग दो। मेरे भक्तॉंमें तुम्होर समान
नित्यं सम्पूर्णकामस्य जन्मानि विविधानि पे।
भक्तसर्वेष्टटानाय तस्मात् किं ते प्रियं बद॥ ७२
अथ व्यजिज्नपद्ठिष्णुं प्रह्मद: प्राञ्जलिर्नमन् ।
सलौल्यमुत्फुल्लदृशा पश्यत्रेवं च तन्मुखम् ॥ ७३
नाप्ययं वरदानाय कालो नैष प्रसीद पे।
त्वदर्शनामृतास्वादादन्तरात्मा न॒ तृष्यति ॥ ७४
ब्रह्मादिदेवैर्दूर्लक्ष्य॑ त्वामेब पश्यतः प्रभो ।
तृप्ति नेष्यति मे चित्तं कल्पायुतशतैरपि ॥ ७५
नैवमेतद्धयतृपतस्य त्वां दृष्टान्यद् वृणोति किम्।
ततः स्पितसुधापुरैः पूरयन् स प्रियं प्रियात् ॥ ७६
योजयन् मोक्षलक्ष्म्यैव तं जगाद जगत्यतिः।
सत्यं मदर्शनादन्यद् बत्स नैवास्ति ते प्रियम् ॥ ७७
किंचित्ते दातुमिष्टे मे मत्प्रियार्थं वृणीष्य तत्।
्रहवादोऽथाद्वीद्धीमान् देव जन्मान्तरेष्वपि ॥ ७८
दासस्तवाहं भूयासं गरुत्मानिव भक्तिमान्।
अधाह नाधः प्रहादं संकटं खल्विदं कृतम्॥ ७९
अहं तवात्मदानेच्छुस्त्वं तु भृत्यत्वमिच्छसि।
चरानन्यां श्च बर्य धीमन् दैत्येश्वरात्मज॥ ८०
्रह्वादोऽपि पुनः प्राह भक्तकामप्रदं हरिम्।
प्रसीद सास्तु मे नाथ त्वद्धक्तिः सात्विकी स्थिरा ॥ ८१
कों भी मुझे प्रिय नहीं है, तुम स्याधीनप्रणयी हो जाओ
[ अवात् यह समझो कि तुम्हारा प्रेमी मैं तुम्हारे वशमें
हूँ]। मैं नित्य पूर्णकाम हूँ, तथापि भक्तोंकी समस्त
कामताओंकों पूर्ण करनेके लिये मेदे अनेक अवतार
हुआ करते हैं; अतः तुम भो बताओ, तुम्हें कौन-सी
वस्तु प्रिय है ?'॥७१-७२॥
तदनन्तर खिले हुए नेत्रोसि भगवान्के मुखक्पे सतृष्णभावसे
देखते हुए प्रह्नदने हाथ जोड़ नमस्कारपूर्वक उनसे यों
निवेदन किया--' भगवन्! यह वरदानका समय नहीं है,
केबल मुझपर प्रसन्न होइये। इस समय मेरा मन आपके
दर्शनरूपी अमृतका आस्वादन करनेसे तृप नहीं हो रहा
है। प्रभो ! ब्रह्मादि देवताओके लिये भी जिनका दर्शन पाना
कठिन है, ऐसे आपका दर्शन करते हुए मेरा मन दस लाख
सर्पोमिं भी वृत्त न न होगा। इस प्रकार आपके दर्शनसे अतृप्त
रहनेबाले मुझ सेवकका चित्त आपके दर्शनके बाद और
क्या माँग सकता है ?'॥७३--७५५,॥
तब मुस्कानमयी सुधाका स्रोत बहाते हुए उन
जगदी श्वरे अपने परम प्रिय भक्त प्रह्वादको मोक्ष-
लक्ष्यीसे संयुक्त-सा करते हुए उससे कष्टा--'बत्स ! यह
सत्य हैं कि तुम्हें मेरे दर्शनसे बढ़कर दूसरा कुछ भी
प्रिय नहीं है; किंतु मेरी इच्छा तुम्हें कुछ देनेकी है । अतः
तुम मेरा प्रिय करनेके लिये हौ मुझसे कुछ माँग
लो'॥७६-७७५, ॥
तब बुद्धिमान् प्रवादे कूहा--' देव ! मैं जन्मात्तरॉमें
भी गरुड़जीकी धाति आपमें हो भक्ति रखनेवाला आपका
दास होऊँ! ग्रह सुनकर भगवात्नें कहा-“यह तो
तुमने मेरे लिये कठिन समस्या रख दी--मैं तो तुम्हें
स्वयं अपने आपको दे देना चाहता हूँ और तुम मेरी
दासता चाहते हो! बुद्धिमान् रैत्यराजकुमार ! दूसरे-दूसरे
चर साँगो"॥ ५८-८० ॥
तब प्रद्भादने भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेवाले भगवान्
चिष्णुसे पुनः कहा-“नाथ! आप प्रसन्न हों; मुझे तो यही
चाहिये कि आपे सेरी सात्विक भक्ति सदा स्थिर रहे।