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हिंसा न करे, सबसे मैत्रीभाव निभाता रहे और

संग्रहका त्याग करके बुद्धिके द्वारा अपनी इन्द्रियोंको

जीते। ऐसा कार्य करे जिसमें शोकके लिये स्थान

ने हो तथा जो इहलोक और परलोकमें भी

भयदायक' न हो। सदा तपस्यामें लगे रहकर

इन्द्रियोंका दमन तथा मनका निग्रह करते हुए

मुनिवृत्तिसे रहे। आसक्तिके जितने विषय हैं, उन

सबमें अनासक्त रहे और जो किसौसे पराजित

नहीं हुआ, उस परमेश्वरकों जीतने (जानने या

प्राप्त करने)-की इच्छा रखे। इन्द्रियोंसे जिन-जिन

वस्तुओंका ग्रहण होता है, वह सब व्यक्त है। यही

व्यक्तकी परिभाषा है। जो अनुमानके द्वारा कुछ-

कुछ जानी जाय उस इन्द्रियातीत वस्तुको अव्यक्त

जानना चाहिये। जबतक (ज्ञानकी कमीके कारण)

पूरा विश्वास न हो जाय, तबतक ज्ञेयस्वरूप

परमात्माका मनन करते रहना चाहिये और पूर्ण

विश्वास हो जानेपर मनकौ उसमें लगाना चाहिये

अर्थात्‌ ध्यान करना चाहिये । प्राणायामके द्वारा

मनको वशमें करे और संसारकी किसी भी

वस्तुका चिन्तन न करे। ब्रह्मन्‌! सत्य ही व्रत,

तपस्या तथा पवित्रता है, सत्य हौ प्रजाकौ सृष्टि

करता है । सत्यसे ही यह लोक धारण किया जाता

है और सत्यसे हौ मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं।।

असत्य तमोगुणका स्वरूप है, तमोगुण मनुष्यको

नीचे (नरकर्मे) ले जाता है। तमोगुणसे ग्रस्त

मनुष्य अन्ञानान्धकारसे आवृत्त होनेके कारण

ज्ञानमय प्रकाशको नहीं देख पाते । नरकको तम

और दुष्रकाश कहते हैँ । इहलोककौ सृष्टि

शारीरिक और मानसिक दुःखोसे परिपूर्ण है । यहाँ

जो सुख हैं वे भी भविष्यमें दुःखको हौ लानेवाले

हैँ । जगत्‌को इन सुख-दुःखोंसे संयुक्त देखकर

संक्षिप्त नारदपुराण

विद्वान्‌ पुरुष मोहित नहीं होते । बुद्धिमान्‌ पुरुषको

चाहिये कि वह दुःखसे छूटनेका प्रयत्न करे।

प्राणियोको इहलोक और परलोकमें प्राप्त होनेवाला

जो सुख है, वह अनित्य है। मोक्षरूपी फलसे

बढ़कर कोई सुख नहीं है। अतः उसीकी अभिलाषा

करनी चाहिये। धर्मके लिये जो शम-दमादि

सदगुणोका सम्पादन किया जाता है, उसका

उद्देश्य भी सुखकी प्राति ही है । सुखरूप प्रयोजनकी

सिद्धिके लिये ही सभी कर्मोंका आरम्भ किया

जाता है। किंतु अनृत (झूठ) से तमोगुणका

प्रादुर्भाव होता है। फिर उस तमोगुणसे ग्रस्त

मनुष्य अधर्मके हौ पीछे चलते हैं, धर्मपर नहीं

चलते। वे क्रोध, लोभ, मोह, हिंसा और असत्य

आदिसे आच्छादित होकर न तो इस लोकमें सुख

पाते हैं, न परलोकमें ही । नाना प्रकारके रोग,

व्याधि और उग्र तापसे पीड़ित होते हैं। वध,

बन्धनजनित क्लेश आदिसे तथा भूख, प्यास और

परिश्रमजनित संतापसे संतप्त रहते है । वर्षा,

आँधी, अधिक गरमी ओर अधिक सर्दीकि भयसे

चिन्तित होते है । शारीरिक दुःखोंसे दुःखी तथा

बन्धु-धन आदिके नाश अथवा वियोगसे प्राप्त

होनेवाले मानसिक शोकोंसे व्याकुल रहते हैं और

जरा तथा मृत्युजनित कष्टसे या अन्य इसी प्रकारके

क्लेशोसे पीडित रहा करते हैं। स्वर्गलोके जबतक

जीव रहता है सदा उसे सुख ही मिलता है । इस

लोकें सुख और दुःख दोनों है । नरकमें केवल

दुःख-ही-दुःख बताया गया है । वास्तविक सुख

तो वह परमपद-स्वरूप मोक्ष ही है।

भर्द्वाजजी बोले--न्नह्मर्षियोंने पूर्वकालमें जो

चार आश्रमोंका विधान किया है, उन आश्रमेकि अपने-

अपने आचार क्या हैं? यह बतानेकी कृपा करें।

१. सत्वं व्रतं तपः शौच सत्यं विसृजते प्रजा॥ सत्येन धार्यते लोक: स्व: सत्येनैव गच्छति।

{ना° पूर्व ४३। ८१-८२)

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