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१९ अवर्ववेद संहिता पाग-२

४११८. स यत्‌ सर्वानन्तर्देशाननु व्यचलत्‌ परमेष्ठी भूत्वानुव्य चलद्‌ ब्रह्मान्नादं कृत्वा ॥२३

जब वही (व्रात्य) सभी अन्तर्देशों दिशा के कोणो ) के लिए उपयोगी बनकर चला, तो वही ब्रह्म को अन्न

भक्षण योग्य बनाते हुए तथा स्वयं परमेष्ठी रूप बनकर विचरणशौल हुआ ॥२३ ॥

४९१९. ब्रह्मणान्नादेनाज्नमत्ति य एवं वेद ॥२४ ॥

जो इस तथ्य को इस प्रकार जानता है, वह ब्रह्म (ब्रह्मज्ञान) द्वारा अन्न (खाद्य सामग्री) का सेवन करता है ॥२४ ॥

[ १५- अध्यात्म-प्रकरण सूक्त (पंचदश पर्याय ) ]

[ ऋषि- अथर्वा । देवता- अध्यात्म अथवा व्रात्य । छन्द- भुरिक्‌ प्राजापत्या अनुष, १ दैवी पंक्ति २ आसुरी

बृहती, ३ प्राजापत्या अनुष्टप्‌ , ५, ६ द्विपदा साम्नी वृहती, ९ विरार्‌ गायत्री । ]

४१२०. तस्य व्रात्यस्य ॥१ ॥

४१२१. सप्त प्राणाः सप्तापानाः सप्त व्यानाः ॥२ ॥

उस व्रात्य (समूहति) के सप्त प्राण, सप्त अपान और सप्त व्यान है ॥१-२ ॥

४१२२. तस्य व्रात्यस्य । योऽस्य प्रथमः प्राण ऊर्ध्वो नामावं सो अग्निः । ।३॥

इस व्रात्य का जो सर्वप्रथम प्राण है, उसे ऊर्ध्वं नामक अग्नि से सप्वोधित किया गया है ॥३ ॥

४१२३. तस्य व्रात्यस्य । योऽस्य द्वितीयः प्राणः प्रौढो नामासौ स आदित्यः ॥४ ॥

इस व्रात्य का जो द्वितीय प्राण है, उसे प्रौढ़ नामक आदित्य कहा गया है ॥४ ॥

४१२४. तस्य व्रात्यस्य । योऽस्य तृतीयः प्राणोडभ्य ढो नामासौ स चन्द्रमाः ॥५ ॥

इस व्रात्य का जो तीसरा प्राण है, उसे अभ्यूढ़ नामक चन्द्रमा कहा गया है ॥५ ॥

४१२५. तस्य व्रात्यस्य । योऽस्य चतुर्थः प्राणो विभूर्नामायं स पवमानः ॥६ ॥

इस व्रात्य के विभू नामक चौथे प्राण को पवमान वायु की संज्ञा दी गई है ॥६ ॥

४१२६. तस्य व्रात्यस्य । योऽस्य पञ्चमः प्राणो योनिर्नाम ता इमा आपः ॥७ ॥

इसी व्रात्य के योनि नामक पाँचवें प्राण को अप्‌ (जल) बताया गवा है ॥७ ॥

४१२७. तस्य व्रात्यस्य । योऽस्य षष्ठः प्राण: प्रियो नाम त इमे पशवः ॥८ ॥

इस वात्य के प्रिय नामक छदे प्राण को पशु कहा गया है ॥८ ॥

४१२८. तस्य व्रात्यस्य । योऽस्य सप्तमः प्राणो ऽपरिमितो नाम ता इमाः प्रजाः ॥९ ॥

इस व्रात्य का अपरिचित नामक जो सातवाँ प्राण है, वह प्रजा नाम से सम्बोधित है ॥९ ॥

[ १६-अध्यात्म-प्रकरण सूक्त (षोडश पर्याय ) |

[ ऋषि- अथर्वा । देक्ता- अध्यात्म अथवा व्रात्य । छन्द- ६, ३ साप्नी उष्णिक्‌ (दैवी पंक्ति) , २, ४-५

प्राजापत्या उष्णिक्‌ , ६ याजुषी त्रिष्टप्‌ , ७ आसुरी गायत्री ।]

४१२९. तस्य व्रात्यस्य । योऽस्य प्रथमोऽपानः सा पौर्णमासी ॥१ ॥

उस व्रात्य के प्रथम अपान को पौर्णमासी कहा गया है ॥१ ॥

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