खरोदनेवाला व्यक्ति बनमें राक्षस तथा बैल होता है । रका
अपहरणकर्ता हीनजाति और ज्ञाक-पातका चोर मयूर-
योनिमें जन्म लेता है। पुष्पका चोर छछ्ुन्दरी, धान्यापहारी
मूषक, फलका चोर वानर, पशुओंका हरण करनेवाला
बकरौ तथा दूधहरतां काकयोनिमें उत्पन्न होता है ।
मांस, वस्त्र और नमककी चोरी करनेवाले मनुष्य
यथाक्रप-गृध्र, शेतकुष्ठी तथा चीरीष्कौ योनि प्राप्त
* प्रायश्चित्त-चिधान एवं सान्तपन, कृच्छु आदि त्रतोका विविध स्वरूप *
| 344
१५
करते हैं। उस फलको भोगकर वे तिर्यक्योनिमें उत्पन्न
होते हैं।
इस प्रकार भोग भोगनेके पश्चात् ये लक्षणप्रष्ट पतितजन
दूसरे जन्मे दरिद्र या पुरुषाधम होते हैं। तत्पश्चात् अपने
सत्कमोंसे निष्कलुष होकर वे योगीके महान् कुलमें जन्म
लेते हैं और सुलक्षणोंसे युक्त होते हुए वे धन-धान्यसे
सम्पन्न हो जाते हैं। (अध्याय १०४)
0
प्रायश्चित्त-विधान एवं सान्तपन, कृच्छर, पराक तथा चान््रायणादि
व्र्तोका विविध स्वरूप
याज्ञवल्क्यजीने पुनः कहा --है मुनियो ! विहित कर्म
न कट्नेसे, निन्दित ( निषिद्ध) कर्मका आचरण करनेसे एवं
इन्द्रिय-निग्रह च करतेके कारण मनुष्य अधोगतिको प्राप्त
करता है ° । अतएवं आत्मशुद्धिके लिये प्रयत्रपूर्वक प्रायश्चित्त
करना चाहिये । इस प्रकार प्रायध्चित्त-कर्म करनेसे उसकी
अन्तरात्मा प्रसन्न हौ जाती है और लोक भी उसके साध
प्रसन्नतापूर्वक व्यवहार करता है । प्रायश्चितसे पापका विनाश
भी हो जाता है। प्रायश्चित्त न करनेवाले तथा पश्चात्तापसे
रहित पापौजन पापके प्रभावसे महारौरव नरकसे भी
महाभयंकर तापिख, लोहशंकु, पूतिगन्ध, हंसाभ, लोहितोद,
संजीवन, नदीपथ, महानिलय, काकोल, अन्धतामिरू तथा
तापन नामक नरकमें जाते हैं।
ब्रह्महन्ता, मद्यपी, ब्राह्मणके सुवर्णकाः चोर, गुरुषन्नीगामौ
तथा इनका संसर्गं करनेवाले मनुष्य अपने पापके कारण
अवीचि तथा कुम्भीपाक नामक महाभयानक नरकका भोग
करते हैं।
गुरु एवं वेदकी निन्दा करना ब्रह्महत्याके समान हैं।
निषिद्ध पदार्थका भक्षण, कुटिलतापूर्वक आचरण और
रजस्वला स्त्रीका अधरपान मदिरापात नामक महापरातकके
सदृश माता जाता है। अश्च तथा रत्रादिका अपहरण, सुवर्ण
चोरोके महापापकी भाँति होता है। मित्रकी पत्नी, अपनी
अपेक्षा उत्तम जातिकी कन्या, चाण्डालो और बहन तथा
पुत्रवधूके साथ सहवास करना गुरुफ्री-गमनके समान
महापाप स्वीकार किया गया है। इसी प्रकार माता-पिताकी
बहन, मामी, विमाता, आचार्यपुत्री, आचार्यपत्नी तथा पुत्रीके
साथ रमण करनेवाला व्यक्ति भी गुरुपन्रोगामीके समान हौ
महापातकी होता है।
ऐसा महापापी मनुष्य लिग-छेदनके पश्चात् वध करनेके
योग्य होता है । इस प्रकारके पापमें यदि स्त्री सकाम होकर
संश्लिष्ट होती है तो उसके लिये भी इसी प्रकारका
प्राय्चित्त-विधान कहा गया है।
गोहत्या, व्रात्यता ( समयपर यज्ञोपवीत- संस्कार न होना
अर्थात् साचित्रीच्युत होना), चोरी (ब्राह्मणका सुवणं अथवा
सुवर्ण-सदृश अन्य द्रव्यका हरण करना), ऋण न लौटाना
तथा देव, ऋषि एवं पितृ-ऋणसे मुक्त होना, अधिकारी होते
हुए भी अग्न्याधान न करना, विक्री न करने योग्य लवण
आदिका विक्रय करना, परिवेदन', रुपये लेकर अध्ययने
करानैवालेसे अध्ययन करना, रुपये लेकर अध्यापन करना,
परस्त्रोक' साथ सहवास, पारिवित्य', प्रतिषिद्ध सूदसे
जीधिकायापन, नमकका उत्पादन, स्वीवध, शुद्रवध, अधीक्षित
वैश्य तथा क्षत्रियका वध करना और निन्दित धनसे
जीविका चलाना, नास्तिकता, ब्रतका लोप, सुत-विक्रय,
१-ऊँची आकज्रवाला कौटविशेष { ० मिगाक्षरा, प्रायक्षित प्रकरण श््देक २१५)
२-विहितस्याननुष्टानाजिष्दितस्य च सेवनातू। अभिश्वह्मच्वेद्धियाणों नर: पतनमृच्छति॥ (१०५। १)
३-वा० निताक्षये प्रॉ०7० स्स्कोक २२७
४- महोद ज्येष्ठ भके अविवाहित रहते हुए छोटा भाई वदि विवाह एवं अध्ििहोत्र ज़ण करता है हो वही परिवेदत वामक पाप है।
५-गुरु एवं गुल्के समातर वषठजनोकि अतिरिक स्त्री ।
£-छोटे भाईके विवाहकर लेनेपर ज्येष्ठके द्वारा विवाह 3 करवेषर होजेवाला दोष पारिवित्य कहलाता है ।
म॑० ग० पु० अं७ ६-