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कलो कतो जो ति मो नैति ओ मिति ओके के ओके के तो चिमे जो ति तिति ओके मो ओके मो तो ति त मौ ते मै ति त ति ओओ ति जो तै च त तौ औ औ के
थी, उससे महायोगी कर्दमजीने किननौ सन्तान उत्पन्न
कीं ? वह सव प्रसङ्गं आप मुझे सुनाइये, मुझे उसके
सुननेकी बड़ी इच्छा रै ।। ४ ॥ इसी प्रकार भगवान् रुचि
और क्रह्माजीके पुत्र दक्षप्रजापतिने भी मनुजीकी
कन्याओंका पाणिग्रहण करके उनसे किस प्रकार क्या-क्या
सन्तान उत्पन्न की, यह सब चरित भी मुझे सुनाइये ॥ ५ ॥
मैत्रेवजीने कहा--विदुरजी ! जब ब्रह्माजीने
भगवान् कर्दमको आज्ञा दी कि तुम संतानकी उत्पत्ति करो
तो उन्होंने दस हजार वर्षोतक सरस्वती नदीके तौरपर
तपस्या कौ॥६॥ वे एकाग्र चित्तसे प्रेमपूर्वक
पूजनोपचारद्वार शरणागतवरदायक श्रीहरिकी आराधना
करने लगे ॥ ७ ॥ तेव सत्ययुगके आरम्भे कमलनयन
भगवान् श्रीहरिने उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर उन्हें अपने
शब्दब्रह्ममय स्वरूपसे मूर्तिमान् होकर दर्शन दिये ॥ ८ ॥
भगवानकी वह भव्य मूर्ति सूर्यके समान तेजोमयी
थी। वे गलेमें श्रेत कमल और कुमुदके फ़ूलॉंकी माला
धारण किये हुए थे, मुखकमल नीली और चिकनी
अलकावलीसे सुशोभित था। वे निर्मल वस्र धारण किये
हुए थे॥ ९ ॥ सिरपर झिलमिलाता हुआ सुवर्णमय मुकुट
कानॉमें जगमगाते हुए कुण्डलं और कर-कमलोमें शङ्ख,
चक्र, गदा आदि आयुध विराजमान थे । उनके एक हाथपें
क्रीडाके लिये श्वेत कमल सुशोधित था। प्रभुको मधुर
मुसकानभरी चितवन चित्तको चुशये लेती थो ॥ १०॥
उनके चरणकमल गरुडजीके कैधोपर विराजमान थे तथा
वक्षःस्थले श्रीलक्ष्मीजी और कण्टे कौस्तुभर्माणि
सुशोभित धी । प्रभुकी इस आकाशस्थित मनोहर मूर्तिका
दर्शन कर्के कर्दमजीको बड़ा हर्ष हुआ, मानो उनकी सभी
कामनाएँ पूर्ण हो गयीं। उन्होंने सानन्द हृदयसे पृथ्वीपर
सिर टेककर भगबानकों साष्टाङ्ग प्रणाम किया और फिर
प्रेमप्रकण चित्तसे हाथ जोड़कर सुमधुर वाणीसे वे उनकी
स्तुति करने लगे॥ ११-१२ ॥
कर्दमजीने कहा--स्तुति करनेयोग्य परमेश्वर ! आप
सम्पूर्ण सत्तगुणके आधार हैं। योगिजन उत्तरोत्तर शुभ
योनियॉमें जन्म लेकर अन्ते योगस्थ होनेपर आपके
दशनो इच्छा करते हैं; आज आपका वही दर्शन पाकर
हमें नेत्रोंका फल मिल गया ॥ १३ ॥ आपके चरणकमल
भवसागरसे पार जानेके लिये जहाज हैं। जिनकी
बुद्धि आपकी मायासे मारी गयी है, ये ही उन तुच्छ
क्षणिक विषय-सुखोंके लिये, जो नरकमें भी मिल सकते
हैं, उन चरणोंका आश्रय लेते हैं; किन्तु स्वामिन् ! आप तो
उन्हें वे विषय-भोग भी दे देते हैं॥ १४ ॥ प्रभो ! आप
कल्पवक्ष हैं। आपके चरण समस्त मनोरथोंकों पूर्ण
करनेवाले हैं। मेय हदय काम-कलुषित है। मै भी अपने
अनुरूप स्वभाववाली और गृहस्थर्मके पालनमें सहायक
शीलवती कन्यसे विवाह करनेके लिये आपके
चरणकमलॉकी शरणमे आया हूँ॥ १५॥ सर्वैर ! आप
सम्पूर्ण लोकोंके अधिपति हैं। नाना प्रकारकी कामनाओं
फँसा हुआ यह लोक आपकी वेद-वाणीरूप डोरीमें वधा
है। धर्ममूरते ! उसका अनुगमन करता हुआ मैं भी
कालरूप आपको आज्ञापालनरूप पूजोपहारादि समर्पित
करता हूँ॥ १६॥
प्रभो ! आपके भक्त विषयासक्त लोगों और उन््हींके
मार्गका अनुसरण करनेवाले मुझ-जैसे कर्मजड़ पशुओंको
कुछ भी न गिनकर आपके चरणॉंकी छत्रकायाका हो
आश्रय लेते हैं तथा परस्पर आपके गुणगानरूप मादक
सुघाका ही पान करके अपने क्षुधा-पिपासादि देदघर्मोको
शान्त करते रहते दँ ॥ ९७ ॥ प्रभो ! यह कालचक्र बड़ा
प्रबल है। साक्षात् ब्रह्म ही इसके घुमनेकी धुरी है, अधिक
माससहित तेरह महीने ओरे है, तीन सौ साठ दिन जोड़ हैं,
छः ऋतुएँ नेमि (यल) हैं, अनन्त क्षण-पल आदि इसमें
पत्राकार घाराएँ हैं तथा तीन चातुर्मास्य इसके आधारभूत
नाभि हैं। यह अत्यन्त वेगवान् संबत्सररूप कालचक्र
चराचरं जगत्की आयुक्त छेदन करता हुआ चृमता रहता
है, किन्तु आपके भक्तोंकी आयुक्रा हास नहीं कर
सकता ॥ १८ ॥ भगवन् ! जिस प्रकार मकड़ी स्वये ही
जालेको फैलाती, उसको रक्षा करतौ ओर् अन्तमें उसे
निगल जाती है--उसी प्रकार आप अकेले ही जगत्की
रचना करनेके लिये अपनेसे अभिन्न अपनी योगमायाको
द्वारा स्वयं हौ इख जगतूकी रचना, पालन ओर् संहार करते
है॥१९॥ प्रभो} इस समय आपने हमें अपनी
तुलसीमालामण्डित, मायासे परिच्छिन्न-सी दिखायी
देनेवाली सगुणमूर्तिसे दर्शन दिया है। आप हम भक्तोंको
जो शब्दादि त्रिषय-सुख प्रदान करते हैं, वे पायिक होनेके