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३७४ संक्षिप नारदपुराण

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देशर्यकी भी प्राप्ति होती है। यदि वल्मीक | कर लेनी चाहिये । नारदजी ! इस प्रकार संक्षेपसे मैंने

(दीमककी मिट्टीके ढेर)-पर शहद दीख पड़े तो | ज्यौतिषशस्त्रका वर्णन किया है । अब वेदके छहों अङ्गम

धनकी हानि होती है। द्विजश्रेष्ठ! इस तरहके सभी | श्रेष्ठ छन्दःशस्त्रका परिचय देता हूं ॥ ७४६--७५८ ॥

उत्पातो यन्नपर्वक कल्पोक्त विधिसे शान्ति अवश्य | (पूर्वभाग द्वितीय पाद अध्याय ५६)

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छन्दःशास्त्रका संक्षिप्त परिचयः

त ! छन्द दो प्रकारके | सभी अर्थात्‌ तौनों अक्षर गुरु हों उसे मगण

बताये जाते है - वैदिकः और लौकिकः । मात्रा | (555) कहा गया है । जिसका आदि अक्षर लघु

और वर्णक भेदसे वे लौकिक या वैदिक छन्द | (और शेष दो अक्षर गुरु) हो, वह यगण ( ।55)

भी पुनः दो-दो प्रकारके हो जाते हैं (मात्रिक | माना गया है । जिसका मध्यवती अक्षर लघु हो,

छन्द और वर्षिक“ छन्द्‌) ॥ १॥ छन्दःशास्त्रके | वह रगण (35) और जिसका अन्तिम अक्षर गुरु

विद्वानोने मगण, यगण, रगण, सगण, तगण, | हो, वह सगण (॥5) है॥३॥ जिसमें अन्तिम

जगण, भगण ओर नगण तथा गुरु एवं लघु--इन्हींको | अक्षर लघु हो, वह तगण (35 ।) कहा गया है,

छन्दोकौ सिद्धिमे कारण बताया है ॥ २॥ जिसमें | जहाँ मध्य गुरु हो, वह जगण (।5।) और

१. शास्त्रकारोने द्विजातियेकि लिये छहों अद्जॉसहित सम्पूर्ण वेदेकि अध्ययनका आदेश दिवा है। उन्ही अङ्गमेसे छन्द

भी एक अड्ड है। इसे वेदका चरण माना गया है--' छदः दौ तु वेदस्य।' (पा० शि० ४१) "अनुष्टुभा यजति, कूहत्या गायति,

यत्या स्तैंति।' (पिं० सूत्रवृत्ति अध्याय १) (अनुष्द॒प्से यजन करे, बृहती छन्दद्वाय गान करे, गायत्री छन्दसे स्तुति करे)

इत्यादि विधियोंका श्रवण होनेसे छन्दको ज्ञान परम आवश्यक सिद्ध होता है। छन्द न जाननेसे प्रत्यवाय भी होता है; जैसा

कि छान्दोग ब्राह्मणक वचन है--'यो ह वा अविदितार्पेयच्छन्दोदैवतविनियोगेन ब्राह्मणेन मन्त्रेण याजयति वाध्यापयति वा

स स्थाणुं बर्च्छति गतं वा पद्यते प्रमीयते वा पापीयान्‌ भवति यातयामान्यस्य छन्दासि भवन्ति।' (पि० सूत्रवृत्ति अध्याय १)

( जो ऋषि, छन्द, देवता तथा विनियोगको जाने बिना ब्राह्मणमन्रसे यज्ञ करता और शिष्योंको पढ़ाता है, वह दूँठे काठके

समान हो जाता है, नरकमे गिरता है, वेदोक्त आयुका पूय उपभोग न करके बीचरमें ही मृत्युको प्राप्त होता है अथवा महान्‌

पापका भागी होता है। उसके किये हुए समस्त वेदपाट यातयाम (प्रभाव -शून्य व्यर्थ) हो जते हैं); इसलिये छन्दका खान

अवश्य प्राप्त करना चाहिये। इसीके लिये इस छन्दःशस्त्रका आरम्भ हुआ है ।

२. वेदमन्त्रोंमें जो गायत्री, अनुष्टुप, वृहती और त्रिष्टप्‌ आदि छन्द प्रयुक्त हुए है, उनको वैदिक छन्द कहते हैं। यथा--

वत्सवितुवरिण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ।

-यह गायत्री छन्द है।

३. इतिहास, पुराण, काव्य आदिके पद्मे प्रयुक्त जो छन्द है, वे लौकिक कहे गये ह । यथा--

सर्वधर्मान्‌ परित्यज्य मामेकं शरणं त्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो पोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥

-यह “श्लोक अनुष्टुप्‌ छन्द है।

४. परिगणित मात्राओँसे पूर्ण होनेवाले छन्दको " मात्रिक" कहते हैं। जैसे-आर्या छन्दके प्रधम और तृतीय पाद

यारह मात्राओंसि, द्वितीय पाद अटारह मात्राओंते और चतुर्थ पाद पन्द्रह मात्राओँसे पूर्ण होते हैं। आयकि पूर्वार्ध सदृश

उत्तराधं भी हो तो ' गीति" और उत्तरार्ध-सदृश पूर्वार्थ हो तो "दपगीति' छन्द होते है ।

आर्यका उदाहरण--

यृन्दावने सलीलं वल्गुदुमकाण्डनिहिततनुयषटः । स्मेरमुखार्षितवेणुः कृष्णो यदि मनसि कः स्वर्गः ॥

५. परिगणित अक्षरोंसे सिद्ध होनेवाले छन्दको ' यर्शिक ' कहते है । यथा--

जयन्ति गोविन्दमुखारबिन्दे मरन्दसानद्राधरमन्दहासाः। चित्ते चिदानन्दमयं हमोघ्रममन्दमिन्दुदरवमुद्रिरन्तः ॥

-यह इन्द्रबज़्ा-उपेन्द्रवज़ाके मेलसे बना हुआ उपजाति नामक छन्द है।

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