उत्तरपर्व ]
* पनोरथपूर्णिमा तथा अशोकपूर्णिमात्रत-विधि +
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जन्मान्तरे बकरी बनी, परंतु व्रतके प्रभावसे उसे अपने
पूर्वजन्मकी स्मृति बनी हुई थी । उसने अपना कृत्तिका-त्रत फिर
ग्रहण किया । वह अपने यूथसे अलूग होकर उपवास करने
कतगी ।
एक बार कार्तिक मासमे किसी दूसरेके स्तेतमें जब यह
चर रही थी, तब उस खेतका स्वामी उसे पकड्कर अपने घर
ले आया । जातिस्मर अग्रिऋषिने उस बकरीको देखा और यह
जान स्तया कि यह रानी कलिगभद्रा है । दयाकर उन्होंने उसे
बन्धनसे मुक्त करा दिया । वहाँसे छूटकर उसने बेरके पत्ते
खाकर शीतल जल पिया और कृत्तिका-त्रतका पारण किया ।
ऋषि अत्रि उसे योगज्ञानका उपदेश देकर अपने आश्रमको
चले गये और वह योगेश्वरी अपने त्तमें पुनः तत्पर हो गयी
तथा कुछ कालके अनन्तर उसने योगबलसे अपने प्राण त्याग
दिये। तदनन्तर वह गौतम ऋषिकी पत्नी अहल्याके गर्भसे
उत्पन्न हुई। उस समय उसका नाम योगलक्ष्मी हुआ।
गौतममुनिने महर्षि झाष्डिल्यमुनिसे योगलक्ष्मीका विवाह कर
दिया। वह भी ऋ्डिल्यके घरमे सरस्वती, स्वाहा, शची,
अरुन्धती, गौरी, राज्ञी, गायत्री, महालक्ष्मी तथा महासतीकी
भाँति सुशोभित हुई। वह देवता, पितर और अतिथियोंके
सत्कारमें नित्य लगी रहती । ब्राह्मणोंको भोजन कराती।
एक दिन महर्षि वहाँ आये और उन्होंने योगबलसे सारा
यूतात्त जान लिया और पूछा--'महाभागे योगलक्ष्पि !
कृत्तिका कितनी हैं ?' यह सुनकर महासती योगलक्ष्मीको भी
पूर्ववृत्त स्मरण हो आया और उसने कहा--'महायोगिन् !
कृतिकाएँ छः हैं।' यह सुनकर दयालुः अब्रिमुनिने पुनः उसे
मन्त्र और कृत्तिका-ब्तका उपदेश दिया, जिसके करनेसे उसने
चिस्कालतक संसारका सुख भोगकर मोक्ष प्राप्त कर लिया।
राजा युथ्िप्ठिरने पूछा--भगवन् ! कृत्तिका-ब्रतकी
क्या विधि है ? इसे आप बतायें।
लगे-- महाराज !
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--राजन् ! फाल्गुनकी
पूर्णिमासे संयत्सरपर्यन्त किया जानेवाला एक व्रत है, जो
महाकार्तिकीका योग होता है । महाकार्तिकी तो बहुत वर्घेमि
और बड़े पुण्यसे प्राप्त होती दै । इसलिये साधारण कार्तिकी
पूर्णिमाकों भी उपवास करें। कार्तिकी पूर्णिमाको प्रातः हो
दन्तधावन आदि कर नक्तत्रतका अधवा उपवासका नियम
अहण करे। पुष्कर, प्रयाग, कुरुक्षेत्र, नैमिष, शाल्ग्राम,
आदि किसी पवित्र तीर्थमें अथवा अपने घरमे ही खान करे ।
फिर देवता, ऋषि, पितर और अतिधिका पूजन कर हवन करे ।
सायेकालके समय घृत और दुग्धसे पूर्ण छः पारमे सुवर्ण,
चाँदी, रत्न, नवनीत, अन्नकण तथा पिष्टसे छः कृत्तिका ओको
मूर्ति बनाकर स्थापित करे । फिर उन्हें रक्तसूत्रसे आवेष्टित कर
सिंदूर, ककम, चन्दन, चमेल्ीके पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य
आदिमे उनका पूजन कर कृत्तिकाओकी मूर्तिर्योको ब्राह्मणको
दान कर दे । दान करते समय यह मन्त्र पदे--
(उर्व १०३ ॥ ३७)
ब्रह्मण भी मूर्ति ग्रहण करते समय इस प्रकारं
मन्त्रोद्चारण करे--
अर्मदा: कामदाः सन्तु इमा नक्षत्रपातर: |
कृत्तिका दुर्गसंसारात् तारयन्त्वावयोः कुछम्॥
(उत्तरपर्व १०३।३९)
तदनन्तर ब्राह्मण सब सामग्री लेकर घर जाय और छः
कदमतक यजमान उसके पीछे चले। इस प्रकार जो पुरुष
कृत्तिका-ब्रत करता है, वह सूर्यके समार प्रकाशमान विमाने
बैठकर नक्षत्रलोकमें जाता है। जो सखी इस ब्रतको करती है,
यह भी अपने पतिसहित नक्षत्रलोकमें जाकर बहुत कालतक
दिव्य भोर्गोका उपभोग करती है।
(अध्याय १०३)
नामसे विख्यात है। इस ब्रतके करनेसे
ब्रतीके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। व्रतीको चाहिये कि वह