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* श्रीकृष्णाजन्मखण्ड + ४१९

क 3

दूसरे कर्मपरायण लोगोंको प्राप्त होते हैं; मेरे | अपने अंशरूपसे भूतलपर अवतार लो।

भक्तोंकों नहीं । मेरे भक्त पाप या पुण्य किसी भी| ऐसा कहकर जगदीश्वर श्रीकृष्णने गोपों और

कर्ममें लिप्त नहीं होते हैं। मैं उनके कर्म॑भोर्गोका | गोपियोंको बुलाकर मधुर, सत्य एवं समयोचित

निश्चय ही नाश कर देता हूँ। मैं भक्तोंका प्राण | बातें कहीं--' गोपो और गोपियो ! सुनो। तुम सब-

हूँ और भक्त भी मेरे लिये प्राणोंके समान हैं।| के-सब नन्दरायजीका जो उत्कृष्ट व्रज है, वहाँ

जो नित्य मेरा ध्यान करते हैं, उनका मैं दिन- | जाओ (उस ब्रजमें अवतार ग्रहण करो) । राधिके !

रात स्मरण करता हूँ*। सोलह अरोंसे युक्त तुम भी शीघ्र ही वृषभानुके घर पधारो।

अत्यन्त तीखा सुदर्शन नामक चक्र महान्‌ तेजस्वी | वृषभानुकी प्यारी स्त्री बड़ी साध्वी हैं। उनका

है। सम्पूर्ण जीवधारियोंमें जितना भी तेज है, वह | नाम कलावती है। वे सुबलकी पुत्री हैं और

सब उस चक्रके तेजके सोलहवें अंशके बराबर | लक्ष्मीके अंशसे प्रकट हुई हैं। वास्तवमें वे

भी नहीं है। उस अभीष्ट चक्रको भक्तोंक निकट | पितरोंकी मानसी कन्या हैं तथा नारियोंमें धन्या

उनकी रक्षाके लिये नियुक्त करके भी मुझे प्रतीति | ओर मान्या समझी जाती हैं। पर्वकाले दुर्वासाके

नहीं होती; इसलिये मैं स्वयं भी उनके पास जाता | शापसे उनका ब्रजमण्डलमें गोपके घरमें जन्म

हूँ। तुम सब देवता और प्राणाधिका लक्ष्मी भी | हुआ है। तुम उन्हीं कलावतीकी पुत्री होकर जन्म

मुझे भक्तसे बढ़कर प्यारी नहीं है। देवेश्वरो ! | ग्रहण करो। अब शीघ्र नन्दब्रजमें जाओ।

भक्तोंका भक्तिपूर्वक दिया हुआ जो द्रव्य है, कमलानने! मैं बालकरूपसे वहाँ आकर तुम्हें

उसको मैं बड़े प्रेमसे ग्रहण करता हूँ, परंतु | प्रात करूँगा। राधे! तुम मुझे प्राणोंसे भी अधिक

अभक्तोंकी दी हुई कोई भी वस्तु मैं नहीं खाता। | प्यारी हो और मैं भी तुम्हें प्राणॉसे भी बढ़कर

निश्चय ही उसे राजा बलि ही भोगते हैं। जो अपने | प्यारा हूँ। हम दोनोंका कुछ भी एक-दूसरेसे भिन्न

स्त्री-पुत्र आदि स्वजनोंको त्यागकर दिन-रात मुझे | नहीं है। हम सदैव एक-रूप हैं।'

ही याद करते हैं, उनका स्मरण मैं भी तुमलोगोंको मुने! यह सुनकर श्रीराधा प्रेमसे विह्वल

त्यागकर अहर्निश किया करता हूँ। जो लोग होकर वहाँ रो पड़ीं और अपने नेत्र-चकोरोंद्वारा

भक्तों, ब्राह्मणों तथा गौओंसे द्वेष रखते हैं, यज्ञों | श्रीहरिके मुखचन्द्रकी सौन्दर्य-सुधाका पान करने

और देवताओंकी हिंसा करते हैं, वे शीघ्र ही उसी | लगीं। “गोपो और गोपियो! तुम भूतलपर श्रेष्ठ

तरह नष्ट हो जाते हैं, जैसे प्रज्वलित अग्रिमें | गोपोंके शुभ घर-घरमें जन्म लो।' श्रीकृष्णकी

तिनके। जब मैं उनका घातक बनकर उपस्थित | यह बात पूरी होते ही वहाँ सब लोगोंने देखा,

होता हूँ, तब कोई भी उनकी रक्षा नहीं कर | एक उत्तम रथ (विमान) आ गया। वह श्रेष्ठ

पाता† । देवताओ! मैं पृथ्वीपर जाऊँगा। अब | मणिरत्रोंके सारतत्त्व तथा हौरकसे विभूषित था।

तुमलोग भी अपने स्थानको पधारो और शीघ्र ही | लाखों श्वेत चवर तथा दर्पण उसकी शोभा बढ़ा

* अहं प्राणाश्च भक्तानां भक्ताः प्राणा मपापि च । ध्यायन्ति ये च मां नित्यं तं स्मरामि दिवानिशम्‌॥

( श्रीकृष्णजन्मखण्ड ६। ५२)

† स्त्ीपुत्रस्वजनांस्त्यक्त्वा ध्यायन्ते मामहर्मिशम्‌ । युष्मान्‌ विहाय तान्‌ नित्यं॑स्मराम्यहमहर्निशम्‌॥

ट्रेश सदा मे भक्तानां ब्राह्मणानां गवामपि । क्रतूनां देवतानां च हिंसां कुर्वन्ति निश्चितम्‌॥

तदाऽचिरं ते नश्यन्ति यथा वहाँ तृणानि च। ज कोऽपि रक्षिता तेषां मयि हन्तर्युपस्थिते ॥

\ श्रीकृष्णजन्मखण्ड ६। ५८--६०)

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