Home
← पिछला
अगला →

उत्तरभागे पृपोऽध्यायः 22

सन्त्कुमारःसनठो भृगुश्च अणोरणीयान्महतो पहोवां-

सनातनश्चैव समन्दनक्ष। स्वामेव सर्व प्रवदन्ति सम्तः॥ २३॥

षयोऽङ्गिरा वामदेवोऽव शुक्र आपसे ही इस जगत्‌ की उत्पत्ति हुई है। आप सबके द्वारा

महर्षिरत्रि:कपिलो मरीचिः॥ १८॥ अनुभूत हैं और परमाणुस्वरूप हैं। आप अणु से भी अणुतर

कटा सदं जगदी्ितारं ओर महान्‌ से भी महानतम हैं। ऐसा ही संतजन कहा करते

राय |

ध्यात्वा

हिरण्यगर्भो

कृताञ्जलि स्वेषु किरः भूयः॥ १९॥ वततोऽसि जात: पुरुष: पुराणः।

सनत्कुमार, सनक, भृगु, सनातन, सनन्दन, द्व, अंगिए, | सञ्ञायपानो भवता निसृष्ट

वामदेव, शुक्र, महर्षि अत्रि, कपिल, मरीचि आदि मुनिगण

विष्णु के आश्रित वामभाग वाले भगवान्‌ रुद्र को देखकर,

इट्य में उनका ध्यात करते हुए मस्तक झुकाकर प्रणाम

करके पुनः अपने दोनों हाथों को जोड़कर शिर पर लगाकर

खड़े हो गये।

ओंकार का उचारण करके और शरोररूपो गुहा में निहित

उन देव का ध्यान करके, वै सव वेदमय बचनों से और

आनन्दपूर्णं मन युक्त होकर देवेश्वर की स्तुति करने लो।

पुनय उचुः

त्वामेकपीशं पुरुष पुराणं प्राणेश्वरं स्रमनन्तवोगम्‌।

नपाम सर्वे हदि सन्निविष्ठं प्रचेतसं ब्रह्ममयं पवित्रम॥२ श॥

मुनिगण बोले- आप हो ईश्वर, पुराणपुरुष, अनन्तयोग,

प्राणेश्वर रुद्र हैं। हम सबके हृदय में संनिविष्ट, प्रचेतस,

ब्रह्ममय और परम पवित्र आपको हम नमन करते है।

पश्यनति त्वा मुनयो ब्रह्मयोनिं

दान्ताः शान्ता विमलं रुक्यवर्णम्‌।

ध्यात्यात्मस्वप्रचल॑ स्वे शरीरे

क्वि परेध्य: परमं पञ्च॥२२॥

आप ब्रह्मयोनि, अत्यन्त विमल और सुवर्णमय कान्तिपान्‌

हैं। अपने शरोर में आत्मरूप से प्रचलित, कवि, पर से भो

परतर, परमरूप आपका ध्यान करके, शांत और दान्त चित्त

बाले मुनिगण आपको देखते है।

त्कत्त: प्रसूता जगत: प्रसूतिः

सर्वाुभूस्वं परपाणुभूत:।

यथाविधानं सकलं स सद्य:॥ २४॥

यह हिरण्याभं जगत्‌ का अन्तरात्मा, पुरणपुरुष आपसे

हो उत्पन्न है। आप के द्वारा सपुत्पन्न होकर ही उसने

यथाविधि शीघ्र ही समस्त जगत्‌ की सृष्टि कौ थी।

त्वत्तो वेदाः सकलाः संप्रसूता-

स््वस्येवान्ते संस्थितिं ते लभन्ते।

हेतुपूत॑

व्यन्त स्वे हृदये म्निविष्टम्‌॥ २५॥

आपसे हो यह समस्त वेद प्रसूत हए है और अन्तिम

सपय में आप में हो यह लोन हो जते हैं। हम सभी जगत्‌

के हेतुभूत, अपने हृदय में सन्निविष्ट. आपको नृत्य करते हुए

देख रहे हैं।

त्वयैवेद प्राप्यत ब्रह्मचक्रं

प्रयाय त्वं जगतापेकनाथः।

नमापस्तवां शरणं संप्रपन्ना

योगात्मानं त्यन्त दिव्यतृत्यम्‌॥ २६॥

आपके दार हौ यह ब्रह्मचक्र भ्रमित हो रहा है। आप हौ

मायावी और जगत्‌ के एकमात्र स्वामी हैं। हम आपकी

शरणागति को प्राप्त हैं। आप योगात्मा दिव्य नृत्य करने वाते

को हम प्रणाम करते हैं।

प्यापस्त्वां परमाकाशमध्ये

नृत्यन्तं ते महिमान॑ स्परापः।

सर्वात्मान॑ बहुधा सरवि

ग्रह्ाननदं चानुभूयानुभूया। २७॥

परमाकाश के मध्य नृत्य करते हुए हम आपको देख रहे

हैं और आपकी महिमा का स्मरण करते हैं। सभी आत्माओं

में अनेक प्रकार से सन्निविष्ट और ब्रह्मानन्द का बार-बार

अनुभव कराने वाले हैं।

← पिछला
अगला →