पूजा “करे। वहीं स््नादि-पञ्चक स्थापित करके
शान्ति-होम करें। तत्पश्चात् जौ, सरसों, बरहंटा
ऋद्धि (ओषधिविशेष), वृद्धि (ओषधिविशेष),
पीली सरसों, महातिल, गोमृत् (गोपीचन्दन )
दरद (हिज्जुल या सिंगरफ), नागेन्द्र (नागकेसर)
मोहिनी (त्रिपुरमाली या पोई), लक्ष्मणा (सफेद
कटेहरी), अमृता (गुरुचि), गोरोचन या लाल
कमल, आरवध (अमलताश) तथा दूर्वा-इन
ओषधियोको मन्दिरके नीचे नीवं डाले तथा
इनकी पोटली बनाकर दरवाजेके ऊपरी भागे
उसकी रक्षाके लिये बाँध दे । बधते समय प्रणव
मन्त्रका उच्चारण करे ॥ १--५॥
दरवाजेको कुछ उत्तर दिशाका आश्रय लेकर
स्थापित करना चाहिये। द्रके अधोभागमें आत्मतत्त्वकां,
दोनों बाजुओंमें विद्यातत्वका, आकाशदेश (खाली
जगह) -मे तथा सम्पूर्ण द्वार-मण्डलमें सर्वव्यापी
शिवतत्त्वका न्यास करे। इसके बाद मूलमन्त्रसे
महेशनाथका न्यास करना चाहिये । द्वारका आश्रय
लेकर रहनेवाले नन्दी आदि द्वारपालके लिये
नमः' पदसे युक्त उनके नाम-मन्त्रोंद्वारा सौ या
पचास आहुतियाँ दे। अथवा शक्ति हो तो इससे
दूनी आहुतियाँ दे ॥ ६-८॥
न्यूनातिरिक्तता-सम्बन्धी दोषसे छुटकारा पानेके
लिये अस््र-मनत्रसे सौ आहुतियाँ दे। तदनन्तर
पहले बताये अनुसार दिशाओंमें बलि देकर
दक्षिणा आदि प्रदान करे॥९॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महाएुराणर्मों 'द्वार-प्रतिष्षकी विधिका वर्णन” तमक
सवां अध्याय पूरा हुआ॥ १००॥
एक सौ एकवाँ अध्याय
प्रासादप्रतिष्ठा
भगवान् शिव कहते है-- स्कन्द ! अब मैं प्रासाद
(मन्दिर) -की स्थापनाका वर्णन करता हूं । उसमें
चैतन्यका सम्बन्ध दिखा रहा हँ । जहाँ मन्दिरके
गुंबजकी समाप्ति होती है, वहाँ पूर्ववेदीके मध्यभागमें
आधारशक्तिका चिन्तन करके प्रणव-मन्त्रसे कमलका
न्यास करें। उसके ऊपर सुवर्णं आदि धातुओमेंसे
किसी एकका बना हुआ कलश स्थापित करे। उसमें
पञ्चगव्य, मधु और दूध पड़ा हुआ हो। रत्न आदि
पाँच बस्तुएँ डाली गयी हों। कलशपर गन्धका लेप
हुआ हो । बह वस्त्रसे आवृत्त हो तथा उसे सुगन्धित
पुष्पोंसे सुवासितं किया गया हो। उस कलशके
मुखे आम आदि पाँच वृक्षोके प्यव डाले गये
हों । हृदय-मन्त्रसे हदय-कमलकी भावना करके उस
कलशको वहाँ स्थापित करना चाहिये ॥ १--३६ ॥
तदनन्तर गुरु पूरक प्राणायामके द्वारा धासको
भीतर लेकर, शरीरके द्वारा सकलीकरण क्रियाका
सम्पादन करके, स्व-सम्बन्धी मन्त्रसे कुम्भक
प्राणायापद्वारा प्राणवायुको भीतर अवरुद्ध करे।
फिर भगवान् शंकरकी आज्ञासे सर्वात्मासे अभिन्न
आत्मा ( जीवचैतन्य) -को जगावे। तत्पश्चात्, रेचक
प्राणायामद्वारा द्वादशान्त-स्थानसे प्रज्वलित
अग्निकणके समान जीव चैतन्यको लेकर कलशके
भीतर स्थापित करे और उसमें आतिवाहिक
शरीरका न्यास करके उसके गुणोके बोधक काल
आदिका एवं ईश्वरसहित पृथ्वी-पर्यन्त तत्त्व-
समुदायका भी उसमें निवेश करे ॥ ४--७॥
इसके बाद उक्त कलशमें दस नाड़ियों, दस
प्राणों, (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय तथा मन,
बुद्धि और अहंकार-इन) तेरह इन्द्रियों तथा
उनके अधिपतियोंकी भी उस कलशमें स्थापना
करके, प्रणव आदि नाम-मन्त्रोंसे उनका पूजन
करे। अपने-अपने कार्यके कारकरूपसे जो