द अवर्ववेद संहिता धाग-२
[७-नक्षत्र सूक्त ]
[ऋषि- गार्म्य । देवता- नक्षत्रादि । छन्द- बषट्, ४ भुरिक् विष्टप् ।]
इस सृक्त में अभिजित् सहित सभी नक्षत्रों का वर्णन है । ज्योतिर्गणित में सवा दो नक्षत्रों की एक राशि पानी जाती है इस
प्रकार १२ १ २.२५ = २७ नक्षत्रों का ही प्रयोग होता है; किन्तु अभिजित् भी २८ वो मान्य नक्षत्र है। राशि गणना 'पेष' से
तदनुसार नक्षत्र गणना 'अश्विनी' से की आती है । इस सूक्त में कृतिका नक्षत्र से वर्णन प्रारप्म करके चक पूरा किया गया है।
लोकपान्य बाल गंगाधर तिलक ने अपने प्रसिद्ध गरन्व 'ओरायन' (सन् १८९३ ई०) की भूमिका में इसी 'कृत्तिका' नक्षत्र की
प्रमुखता के आधार पर 'वेदों का काल निर्धारण' सुनिश्चित किया है । उनका मानना है कि जिन दिनों कृत्तिका नक्षत्र की प्रमुखता
थी, कृत्तिका नक्षत्र से नक्षत्र चक्र प्रारप्य होता था उप्ती नक्षत्र को आधार पानकर दूसरे नश्वतरो की गतिविधि तथा दिन-रात की
गणना होती धी, वही ब्राह्मण काल था, सी है ¶ था उसे 'मृगशिराकाल' कहते वे; क्योंकि उस समय 'मृगशिरा'
नक्षत्र की प्रमुखता थी। उनके मतानुसार इस समय से भी पूर्व, जिसे अदितिकाल (६०००-४००० ई०पू०) कहते हैं, पत्रों का
प्रादुर्धाव हो चुका था-
४६००. चित्राणि साकं दिवि रोचनानि सरीसृपाणि भुवने जवानि।
तुर्मिशं सुमतिमिच्छमानो अहानि गीर्भिः सपर्यामि नाकम् ॥१॥
हम अनिष्ट निवारक श्रैष्ठ बुद्धि की कामना करते हुए, बुलोक में विचित्र वर्णों से एक साथ
चमकते हुए, नष्ट न होने वाले, तीव्र वेग से सतत गतिशील नक्षत्रों एवं स्वर्गलोक की अपनी वाणी से
स्तुति करते हैं ॥१ ॥
४६०१. सुहवमग्ने कृत्तिका रोहिणी चास्तु भद्रं मृगशिरः शमार्द्रा ।
पुनर्वसू सूनृता चारु पुष्यो भानुराश्लेषा अयनं मघा मे ॥२ ॥
हे अग्निदेव ! कृत्तिका और रोहिणी नक्षत्र हमारे लिए सुखपूर्वक आवाहन करने योग्य हों ‹ मृगशिरा नक्षत्र
कल्याणप्रद हो । आर्द्रा शान्तिकारक हो । पुनर्वसु श्रेष्ठ वक्तृत्व कला (वाकशक्ति) देने वाला एवं उत्तम फलदायी
हो । आश्लेषा प्रकाश देने वाला तथा मघा नक्षत्र हमारे लिए प्रगतिशील मार्ग प्रशस्त करने वाला हो ॥२ ॥
४६०२. पुण्यं पूर्वा फल्गुन्यौ चात्र हस्तश्चित्रा शिवा स्वाति सुखो मे अस्तु ।
राधे विशाखे सुहवानुराधा ज्येष्ठा सुनक्षतरमरिष्ट मूलम् ॥३॥
पूर्वाफाल्गुनो नक्षत्र पुण्यदायौ, हस्त और चित्रा नक्षत्र कल्याणकारी, स्वाति नक्षत्र सुखदाय,
राधा-विशाखा नक्षत्र आवाहन योग्य तथा अनुराधा, ज्येष्टा एवं मूल नक्षत्र मंगलप्रद हो ॥३ ॥
४६०३. अन्नं पूर्वा रासतां मे अषाढा ऊर्ज देव्युत्तरा आ वहन्त ।
अभिजिन्मे रासतां पुण्यमेव श्रवणः श्रविष्ठाः कुर्वतां सुपुष्टिम् ॥४॥
पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र हमारे लिए अन्नप्रद और उत्तराषाढ़ा बलदायक अत्ररस प्रदान करे । अभिजित् हमारे लिए
पुण्यदायी, श्रवण और घनिष्ठा नक्षत्र हमारे लिए उत्तम रीति से पालन करने वाले हों ॥४ ॥
४६०४. आ मे महच्छतभिषग् वरीय आ मे द्वया प्रोष्ठपदा सुशर्म ।
आ रेवती चाश्वयुजौ भगं म आ मे रयिं भरण्य आ वहन्तु ॥५ ॥
शतभिषक् नक्षत्र महान् वैभव प्रदाता तथा दोनों श्रेष्ठपदा नक्षत्र हमें श्रेष्ठ सुख प्रदान करने वाले हों । रेवती
और अश्वयुग (अश्विनी) नक्षत्र ऐश्वर्यदाता तथा भरणी नक्षत्र भी हमें वैभव प्रदान करने वाले हों ॥५ ॥