मध्यमपर्व, द्वितीय भाग ]
* प्रतिष्ठा-मुहूर्त एवं जल््रकषय आदिकी प्रतिष्ठा-विधि +
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सुरक्षा करवाये । तदनन्तर आचार्य, यजमान और ऋत्विक्
मधुर पदा्थोकर भोजन करे । बिना अधिवासन-कर्म सम्पन्न
किये देवप्रतिष्ठाका कोई फल नहीं होता । नित्य, नैमित्तिक
अथवा काम्य करमोमिं विधिके अनुसार कुष्ड-मण्डपकी
रचनाकर हवन-कार्य करना चाहिये।
ब्राह्मणो ! यज्ञका्यमें अनुष्ठानके प्रमाणसे आठ होता,
आठ द्वारपपाल और आठ याजक ब्राह्मण होने चाहिये। ये सभी
बाह्मण शुद्ध, पवित्र तथा उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न वेदमन्त्र
पारङ्गत होने चाहिये। एक जप करनेवाले जापकका भी वरण
करना चाहिये । ब्राह्मणोंकी गन्ध, माल्य, वस्त्र तथा दक्षिणा
आदिके द्वार विधिके अनुसार पूजा करनी चाहिये । उत्तम
सर्वलक्षणसम्पन्न तथा विद्धान् ब्राह्मण न मिलनेपर किये गये
यज्ञका उत्तम फल प्राप्त नहीं होता । ब्राह्मण वरणके समय गोत्र
और नामक निर्देश करे । तुरापुरुषके दानमे, स्वर्ण-पर्वतके
दानपें, वृषोत्सर्गमें एवं कन्यादानमें गोत्रके साथ प्रवस्का भी
उच्चारण करना चाहिये। मृत भार्यावाल्न, कृपण, शुद्रके घरमे
महात्रणी, अपुत्र तथा केवत अपना ही भरण-पोषण
करनेवाला-- ये सब यज्ञके पात्र नहो हैं । ब्राह्मणोंके वरण एवं
पूजनके मन्त्रके भाव इस प्रकार हैं-- आचार्यदेव ! आप
ब्रह्मकी मूर्ति हैं। इस संसारसे पेरी रक्षा करें। गुये आपके
प्रसादसे ही यह यज्ञ करनेका सुअबसर मुझे प्राप्त हुआ है ।
चिरकाल्म्तक मेरी कीर्ति अनी रहे । आप मुझपर प्रसन्न होवे,
जिससे मैं यह कार्य सिद्ध कर सकूँ । आप सब भूत्तोकि आदि
हैं, संसाररूपी समुद्रसे पार करनेवाले हैं। ज्ञानरूपी अमृतके
आप आचार्य हैं। आप यजुर्वेदस्वरूप हैं, आपको नमस्कार
है। ऋल्विज्गणो ! आप षडङ्ग वेदोंके ज्ञाता हैं, आप हमारे
लिये मोक्षप्रद हों। मण्डलमें प्रवेश करके उन ब्राह्मणोंको
अपने-अपने स्थानॉपर क्रमशः आदरसे बैठाये । वेदीके पश्चिम
भागमें आचार्यक बैठाये, कुष्डके अग्र-भागमें ऋ्माका
बैठाये। होता, द्वारपछ आदिको भी यथास्थान आसन दे।
यजमान उन आचार्य आदिको सम्बोधित कर प्रार्थना करे कि
आप सब नारायणस्वरूप हैं। मेंरे यज्ञकों सफल बनावें।
यजुर्वेदके तत्त्वार्थको जाननेवाले ब्रह्मरूप आचार्य! आपको
प्रणाम है। आप सम्पूर्ण यज्ञकर्मके साक्षीभूत हैं। ऋग्वेदार्थको
जाननेवाले हन्द्ररूप बअहान्! आपको नमस्कार है। इस
यज्ञकर्मकी सिद्धिके लिये ज्ञानकूपी मह़ृलमूर्ति भगवान्
शिवको नमस्कार है। आप सभी दिशाओं-बविदिशाओंसे इस
यज्ञकी रक्षा करें। दिवपालरूपी ब्राहश्णोंकों नमस्कार है।
वरत, देवार्चस तथा यागादि कर्म संकल्पूर्वक करने
चाहिये। काम संकल्पपूलक और यज्ञ संकल्पसम्भूत हैं।
संकल्पके बिना जो धर्माचरण करता है, वह करई फल नहीं
प्राप्त कर सकता। गङ्गा, सूर्य, चन्र, द्यौ, भूमि, रात्रि, दिन,
सूर्य, सोम, यम, काल, पञ्च महाभूत--ये सब झुभाझुभ-
कर्मके साक्षी हैं'। अतएव विचारवान् मनुष्यको अशुभ
कर्मोस्ते विर्त हो धर्मका आचरण करना चाहिये। धर्मदेव शुभ
शरीरवाले एवै श्वेतवख्र धारण करते ह । वृषस्वरूप ये धर्मदेव
अपने दोनों हार्थोमिं वरद और अभयमुद्रा धारण किये हैं। ये
सभी प्राणिर्योको सुख देते है ओर सनक लिये एकमात्र
मोश्चके कारण है । इस प्रकारके स्वरूपवाठे भगवान् धर्मदेव
सत्पुरुपकि ह्वय कल्याणकारी हों तथा सदा सबकी रक्षा
करें" । (अध्याय १७-१८)
पता टं एवं कलाय आसि परिषा वि
सूतजी कहते है ~ ब्राह्मणो ! ऋषियोंने देवता आदिकी
प्रतिष्ठाय पा, फाल्गुल आदि छः मास नियत किये हैं।
जबतक भगवान् विष्णु शयन नहीं करते, तबतक प्रतिष्ठा आदि
कार्य करने चाहिये । शुक्र, गुरु, बुध, सोम--ये चार वार शुभ
१-गन्जा चादित्यक्द्री च झ्यौर्भमी रात्रियासरो॥
सूर्यः रेफे वमः काले महाभुताति षच च । एते शुभाशुभस्वेह कर्मणों नय साक्षिणः ॥
(मध्यमपर्थ २। १८ ॥ ४३-डड)
२-धर्म: सुप्रथपु: सिताम्बधर- कार्योध्वदेशे वृषो हस्ताध्यामभरय कर च स्तै रूप परे यो दधत् ।
सर्वऋणिसुख्कावह: कृति मोझैकहेतु: सटः सो5यं पातु जण््ति चैव सतते भूयात् सतौ भूतये ॥
{मध्यमय २३१८ । ४६)