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* गरुडपुराणकी वक्तृ-ओतू-परम्परा, भगवान्‌ विष्णुद्धारा अपने स्वरूपका वर्णन«

गरुडपुराणकी वक्तृ -श्रोतृ-परम्परा, भगवान्‌ विष्णुद्वारा अपने स्वरूपका वर्णन तथा

गरुडजीको पुराणसंहिताके प्रणयनका वरदान

ऋषियोंने पुनः: कहा--( हे सूतजी महाराज!) आपको

महात्मा व्यासजीने विष्णुकथासे आश्रित इस श्रेष्ठ

गरुडमहापुराणकों किस प्रकार सुनाया था ? वह सब आप

हमें विधिवत्‌ सुनानेकी कृपा करें।

सूतजी बोले-- एक बार मुनियेकि साथ मैं बदरिकाश्रम

गया धा। वहाँपर परमे श्वरके ध्यानमें निमग्र भगवान्‌ व्यासका

मुझे दर्शन हुआ। उन्हें प्रणाम करके मैं वहींपर बैठ गया

और उन मुतीश्चरसे मैंने पूछा--हे व्यासजी! आप परमेश्वर

भागवान्‌ श्रीहरिके स्वरूप और जगत्‌की सृष्टि आदिको मुझे

सुनायें, क्योंकि मैं जानता हूँ कि आप उन्हीं परम पुरुषका

ध्यान कर रहे हैं और उन सर्वज्ञके स्वरूपका परिज्ञाने भी

आपको है हे विप्रवृन्द! मैंने व्यासदेवके सामने जब ऐसी

जिज्ञासा की तो उन्होंने मुझसे जो कुछ कहा था, वह सब

मैं आप सभीसे कह रहा हूँ, सुर्ते।

व्यासजीने कहा--हे सूतजी! ब्रह्माजीने जिस प्रकार

नारद एवं प्रजापति दक्ष आदिसे तथा मुझसे इस पुराणकों

कथा कहो थी, उसौ प्रकार मैं गरुड़महापुराणकों सुनाता हूँ।

आप सब (उसे) सुनें।

सूतजीने पूछा-- (हे भगवन्‌!) ब्रह्माजीते देवर्षि नारद

और प्रजापति दक्षसहित आपसे किस प्रकारके पवित्र एवं

सारतत्व बतानैवाले पुराणको कहा था?

व्यासजीने कहां--एक बार नारद, दक्ष तथा धृगु

आदि ऋषियोंके साध मैं ब्रह्मलोकमें विद्यमान श्रीम्रह्माजोके

पास गया और उन्हें प्रणामकर मैंने प्रार्थना को कि हे प्रभो

आप हमें सारतत्व बतानेकी कृपा करें।

ब्रह्माजी बोले--यह गरुडमहापुरण अन्य सभी शास्त्रोंका

सारभूत है। प्राचोन क्लमे भगवान्‌ विष्णुने अन्य देवताओसहित

स्द्रदेव (शिव) और मुझसे जिस प्रकार इसे कहा था, उसौ

प्रकार मै भौ इसका वर्णन आपसे कर रहा हूँ।

व्यासजीने कहा--भगवान्‌ श्रोहरिने अन्य देवकि साथ

रुद्रदेबको किस प्रकारसे सारभूत और महान्‌ अर्थ बतलानेवाले

इस गरुडमहापुतणको सुताया धा ? हे ब्रह्मन्‌! उसे आप सुत्रयें।

ब्रह्माजी बोले-- एक बार इन्द्रादि देवताओंके साथ मैं

कैलासपर्वतपर पहुँच गया। वहाँ मैंने देखा कि रुद्रदेव शङ्कर

परम तत्वके ध्यानमें निमग्र हैं। मैंने प्रणाम करके उनसे

पूछा-- है सदाशिव! आप किस देवका ध्यान कर रहे हैं?

मैं तो आपसे अतिरिक्त अन्य किसी देवताकों नहीं जानता

हूँ। हन सभी देवताओंके साथ उस परम सारततत्वको

जाननेकी मेरी इच्छा है। अत: आप उसका वर्णते करें।

श्रीरुद्रजीने बरह्माजीसे कहा-- मैं तो सर्वफलदायक,

सर्वव्यापी, सर्वरूप, सभी प्राणियोंके हृदयमें अवस्थित

परमात्मा तथा सर्वेश्वर उन भगवान्‌ विष्णुका ध्यान करता

हूँ। हे पितामह ! उन्हीं विष्णुकी आयाधना करनेके लिये मैं

शरीरमें भस्म तथा सिरपर जटाजूट धारण करके ब्रताचरणमें

निरत रहता हूँ। जो सर्वव्यापक, जयशील, अदत, निराकारं

एवं पद्चनाभ हैं, जो निर्मल (शुद्ध) तथा पवित्र हंसस्वरूप

हैं, मैं उन्हों परमपद परमेश्वर भगवान्‌ श्रीहरिका ध्याने करता

हूँ। इस सारतत्व (श्रोविष्णु)-के विषयमें उन्होके पास

चलकर हम सभीको पूछना चाहिये।

जिनमें सम्पूर्ण जगत्‌का वास है। प्रलयकालमें जिनमें

सम्पूर्ण जात्‌ प्रविष्ट हो जाता है, सब प्रकारसे अपनेकों

उन्होंको शरणमें करके मैं उन्हींका चिन्तन करता हूँ। जिन

सर्वभूतेश्वरमें सत्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण एक सूत्रमें

अवगुम्फित मणिरयोके समान विद्यमान रहते हैं, जो हजार

नेत्र, हजार चरण, हजार जंघा तथा श्रेष्ठ मुखसे युक्त हैं, जो

सूक्ष्ससे भी सूक्ष्म, स्थूलसे भी स्थुल, गुरुसे गुस्तम और

पूज्योंसें पृण्यतम तथा श्रेष्ठिं भी श्रेष्ठठम हैं, जो सत्योके परम

सत्य और सत्यकर्मा कहे गये हैं, जो (पुराणोंमें) पुराणपुरुष

ओर द्विजातियोंमें ब्राह्मण हैं, जो प्रलयकालपें सङ्कषंण

कहलाते हैं; मैं उन्हीं परम उपास्यकी उपासना करता हूँ।

जिन सत्‌-असत्‌से परे, ऋत ( सत्यस्वरूप), एकाक्षर

(प्रणवस्वरूप ) परब्रह्मकी देव, यक्ष, राक्षस और नागगण

अर्चना करते हैं, जिनमें सभी लोक उसी प्रकार स्फुरिते

होते हैं, जिस प्रकार जलमें छोटो-छोटी मछलियाँ स्फुरित

होती हैं, जिनका मुख अग्नि, मस्तक झुलोक, नाभि

आकाश, चरणयुग्म पृथ्वी और नेत्र सूर्य तथा चन्द्र हैं; ऐसे

उन (विष्णु) देवका मैँ ध्यान करता हूँ।

जिनके उदरे स्वर्ग, मर्त्यं एवं पाताल-- ये तीनों लोक

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