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* पुराणं गारुडं वक्ष्ये सारं विष्णुकथाश्रयम् *
[ संक्षिप्त गरूडपुराणाङ्ख
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होते हुए भी जगत्की रक्षाके लिये सनत्कुमार आदि अनेक
रूपोंमें अवतार प्रहण करते हैं।
हे ब्रह्मन् ! उन भगवान् श्रीहरिने सर्वप्रथम कौमार-सर्गमें
(सनत्कुमारादिके रूपमें) अवतार धारण करके कठोर तथा
अछण्ड ब्रह्मचर्यव्रतका पालन किया। दूसरे अवतारमें उन्हीं
यज़ेश्वर श्रोहरिने जगतृकी स्थितिके लिये (हिर्ण्याक्षके
द्वारा) रसातलमें ले जायी गयी पृथिवीका उद्धार करते हुए
“यराह' -शरीरकौ धारण किया। तोसरे ऋषि- सर्गमें देवर्षि
( ऋरद) -के रूपमें अवतरित होकर उन्होंने ' सात्वत तन्त्र"
( नारदपाश्चरत्र) - का विस्तार किया, जिससे निष्काम कर्मका
प्रवर्तन हुआ | चौथे ' नरनारायण '-अवतारमें भगवान् श्रीहरिने
धर्मकी रक्षेक लिये कठोर तपस्या की और ये देवताओं
तथा असुर्रोद्वारा पूजित हुए। पाँचवें अवतारमें भगवान्
ओहरि ' कपिल'-नामसे अवतरित हुए, जो सिड्धोपें सर्वश्रेष्ठ
हैं और जिन्होंने कालके प्रभावसे लुप्त हो चुके सांख्यशास्त्रकी
शिक्षा दी। छठे अवतारमें भगवान् नारायणने महर्षि अत्रिकी
पत्नी अनसूयाके गर्भसे 'दत्ताग्रेय' के रूपमें अबतोर्ण होकर
राजा अलक और प्रहाद आदिको आज्वीक्षिकी (ब्रहम)
विद्याका उपदेश दिया। सातवें अवतारे श्रोनारायणने
इन्द्रादि देवगणोके साथ यका अनुष्ठान किया और इसी
स्वायम्भुव मन्वन्तरे वे आकूतिके गर्भसे रूचि प्रजापतिके
पूत्ररूपमें *यज्ञदेव” नामसे अवतीर्णं हुए। आठवें अवतारे
ये हो भगवान् विष्णु नाभि एवं मेल्देवीके पुश्ररूपमें
'ऋषभदेव ' नामसे प्रादुर्भूत हुए। इस अवतारे इन्होंने
नारियोकि उस आदर्श मार्ग (गृहस्थाश्रम)-का निदर्शन
किया, जो सभौ आश्रमोद्राया नमस्कृत है। ऋषियोंकी
प्रार्थनासे भगवान् त्रोहरिने नवं अवतारे पार्थिव शरीर अर्थात्
'पृथु' का रूप धारण किया और (गौरूपा पृथिवीसे)
दुश्धरूपमें ( अन्नादिक) महौषधियोंका दोहन किया, जिससे
प्रजाओंके जोवनकौ रक्षा हुई। दसवें अवतारमें ' मत्स्यायतार'
ग्रहणकर इन्होंने चाक्षुप मन्यन्तरके वाद आनेयाले प्रलयकालमें
(निग्श्नित) वैवस्वत मनुकों पृथ्वीरूपी नौकाममें बैठाकर
सुरक्षा प्रदान को। ग्यारहवें अवतारमें देवों और दानवॉने
समुद्र-मन्थन किया तो उस समय भगवान् नारायणने
"कूर्म" रूप ग्रहण करके पन्दराचल पव॑ंतकों अपनों पीठपर
धारण किया। उन्होंने बारहवें अवतारमें “घन्वन्तरि' तथा
तेरहयें अवतारमें 'मोहिनी' का रूप ग्रहण किया और इसी
स्त्रीरूपमें उन्होंने (अपने सौन्दर्यसे) दैत्योंकों मुग्ध करते
हुए देवताऑको अमृतपात्र कराया। चौदहयें अवतारमें
भगवान् विष्णुने “नृसिंह'का रूप धारणकर अपने तेज
नखाग्रॉंसे पराक्रमी दैत्यराज हिरण्यकशिपुके इदयको उसी
प्रकार विदीर्ण किया, जिस प्रकार चटाई बनानेवाला व्यक्ति
तित्रकेको चौर डालता है। पंद्रहवें अबतारमें 'वामन' रूप
घारणकर वे राजा बलिके यतँ गये और देवॉको तीनों
लोक प्रदान करनेकी इच्छसे उनसे तीन पग भूमिकों
याचना की | सोलहर्वे ( परशुराम नामक) अव्र ब्राह्मण्छोही
त्रियोके अत्याचारोंको, देखकर उनको क्रोध आ गया और
उसौ भावावेशमे उन्होंने इक्कीस बार पृथिवोको क्षत्रियोंसे
रहित कर दिया । तदनन्तर सत्रहवें अवतारमें ये पराशरद्वारा
सत्यवतोसे (व्यास-नामसे) अबतरित हुए और मनुष्योंकी
अल्पज्ञताकों जानकर इन्होंने वेदरूपी वृक्षकों अनेक
शखाओमिं विभक्त किया। श्रीहरिने देवहाओंके कार्योको
करनेकी इच्छते राजके रूपे ' श्रीराम '-नामते अद्रारहवां
अवतार लेकर समुद्रबन्धन् आदि अनेक पराक्रमपूर्णं कार्य
किया । उन्नसवें तथा बौसवें अवतारमें श्रोहरिने वृष्णिवंशमें
"कृष्ण' एवं 'चलगम' का रूप धारण करके पृथ्वके
भारका हरण किया । इक्कीसवें अवतारमे भगवान् कलियुगकी
सन्धिके अन्तर्मे देवद्रोहियोंको मोहित करनेके लिये कीकट
दैशमे जिनपुत्र 'बुद्ध' के नामसे अवतीर्णं होंगे और इसके
पश्चात् कलियुगकौ आठवीं सन्ध्याम अधिकांश राजवर्गके
समाप्त होनेपर घे ही श्रीहरि विष्णुयशा नामक ब्राह्मणके
घरमें " कल्कि" तापसे अवतार ग्रहण करेंगे।
है द्विजो! (मैंने यहाँपर भगवान् नाग्रयणके कुछ हौ
अवतार्तेकौ कथाका वर्णने किया है । सत्य तो यह है कि)
सतत्वगुणके अधिष्ठान भगवान् विष्णुके असंख्य अवतार ह ।
मनु, वेदवेत्ता तरथा सृष्टिप्रवतेक सभी ऋषि उन्हीं विष्णुकौ
विभूति कहौ गयो है । उन्हो मनु आदि श्रेष्ठ ऋषियोंसे इस
जगत्की सृष्टि आदि होती है, इसीलिये व्रत आदिके द्वारा
इनको पूजा करनी चाहिये । प्राचीन कालमें भगवान् वेदव्यासने
इसी 'गरुडमहापुराण ' को मुझे सुनाया था। (अध्याय १)
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