काण्ड-११ सूक्त- ४ १७
जिस वक्षस्थल से प्राचीन ज्ञानियों (ऋषियों ) ने इस ओदन का प्राशन किया था, उससे भिन्न दूसरे
वक्षस्थल से सेवन किये जाने पर कृषि कार्य में समृद्ध नहीं होंगे, ऐसा प्राशिता से कहे । ( प्राशिता कहे- )
हमने पराड्रमुख अथवा अभिमुख होकर इस अत्र का प्राशन नहीं किया, अपितु पृथ्वीरूप वश्चस्वल से ओदन
का प्राशन किया और उसे यथेष्ट स्थल की ओर प्रेरित किया है । इस प्रकार से प्राशित यह अन्न सर्वाड्जपूर्ण
हो जाता है, जो साधक इसके सम्बन्ध में इस प्रकार ज्ञान रखता है, वह पुण्यभूत स्वार्गादि के सर्वाड्रपूर्ण
अभीष्ट फलों को प्राप्त करता है ॥१० ॥
३०९६. ततश्चैनमन्येनोदरेण प्राशीर्येन चैत पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। उदरदारस्त्वा
हनिष्यतीत्येनमाह । तं वा अहं नार्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम् । सत्थेनोदरेण ।
तेनैनं प्राशिषं तेनैनमजीगमम् । एष वा ओदनः सर्वाङ्गः सर्वपरुः सर्वतनूः ।
सर्वाङ्गं एव सर्वपरुः सर्वतनूः सं भवति य एवं वेद ॥११ ॥
पूर्वकालीन पुरुषों ने जिस उद्र से अन्न का सेवन किया, उससे भिन्न दूसरे ढंग से प्राशन करने की स्थिति
भे उदर के लिए कष्टदायो अतिसार नामक रोग से आपका विनाश होगा, ऐसा ( प्राशिता से ) कहे । ( प्राशिता
कहे-) अभिमुख अथवा पराड्रमुख अवस्था में मैंने इसका सेवन नहीं किया, अपितु सत्यरूपी उदर से इसका प्राशन
किया, जिससे इसके दोष से मुक्त होकर यथेष्ट स्थल में इसे प्रेषित किया है । इस प्रकार से सेवित यह ओदन
सर्वाड्रपूर्ण हो जाता है, जो साधक इस विधि से इससे (ओदन- प्राशन से ) संबंधित जानकारी रखता है, वह इसके
सर्वाड्रपूर्ण अभीष्ट फलों के पुण्यभूत स्वर्गादि को उपलब्ध करता है ॥११ ॥
३०९७. ततश्चैनमन्येन वस्तिना प्राशीर्येन चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन् । अप्सु
मरिष्यसीत्येनमाह । तं वा अहं नार्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम् । समुद्रेण
वस्तिना । तेनैनं प्राशिषं तेनैनमजीगमम् । एष वा ओदनः सर्वाङ्ग सर्वपरुः
सर्वतनूः । सर्वाङ्ग एव सर्वपरुः सर्वतन्ः सं भवति य एवं वेद ॥१२॥
प्राचीन ऋषियों ने जिस वस्ति (मृत्राशय ) द्वारा ओदन का सेवन किया था, उससे भिन्न दूसरी विधि से इसके
सेवन से आपकी जल में मृत्यु होगी, ऐसा ( प्राशनकर्ता से) कहे । (प्राशिता कहे-) मैन अभिमुख अथवा पराङ्गमुख
अवस्था मे इसका प्राशन नहीं किया है, अपितु समुद्र रूपो वस्ति से ओदन का प्राशन किया है, इससे दोषमुक्त होने
पर उसके यथेष्ट लाभ को प्राप्त किया है । इस प्रकार सेवित यह अत्र सम्पूर्ण अंग-अवयवों से परिपूर्ण है । इस
विधि का ज्ञाता सर्वाड्भिपूर्ण अभीष्ट लाभ प्राप्त करते हुए पुण्यभूत स्वर्गादि लोक प्राप्त करता है ॥६२ ॥
३०९८, ततश्लैनमन्याभ्यामूरुभ्यां प्राशीर्याभ्यां चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन् । ऊरू ते मरिष्यत
इत्येनमाह । तं वा अहं नार्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम् । पित्रावरुणयो
रूरुभ्याम् । ताध्यामेनं प्राशिषं ताभ्यामेनमजीगमम् । एष वा ओदनः स्वद्गः
सर्वपरुः सर्वतनूः । सर्वाङ्ग एव सर्वपरुः सर्वतनूः सं भवति य एवं वेद ॥१३ ॥
प्राचीन ऋषियों ने जिन जंघाओं से इस ओदन का प्राशन किया धा, उससे भिन विधि से इसके सेवन से
जधा विनष्ट हो जाएँगी, ऐसा ( सेवनकर्ता से) कहे ।( प्राशिता कहे- ) हमने अभिमुख अथवा पराङ्गमुख स्थिति
में ओदन का प्राशन नहीं किया । अपितु मित्रावरुण रूपी जंघाओं से इसका सेवन करके उसके यथेष्ट फल को
प्राप्त किया । इस प्रकार से प्राशित यह अत्र सर्वाड्रपूर्ण हो जाता है, जो इस प्रकार से इसके सम्बन्ध में ज्ञान रखता
है, वह सर्वाड्रपूर्ण फलों को प्राप्त करते हुए पुण्यभृत स्वर्गादि लोको का अधिकारी होता है ॥१३ ॥