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भाषितं भवता सर्व चातुराश्रप्यपुनपम्‌।

इदानीं श्रोतुमिच्छामो यथा सम्भवने जगत्‌॥ २॥

पुियो ने कहा- आपने चारों आश्रपों का उत्तम प्रकार से

वर्णन कर दिया। अव हम संसार कैसे उत्पन्न होता है, इस

विषय में सुनना चाहते हैं।

कुतः सर्वपिदं जातं ऊर्स्मिश्न लयमेष्यति।

नियत्ता कक्ष सर्वेषां वदस्व पुरुषोत्तम॥३॥

हे पुरुषोत्तम! यह सम्पूर्ण जगत्‌ कहाँ से उत्पन्न हुआ है

और किसमें जाकर यह लय को प्रात होगा ? इन सवका

नियंता कौन है ? यह आप कहें।

श्त्या नारायणो वाञ्यमृषीरणा कुर्मरूपषएक्‌।

प्राह गम्भीरया वाचा भृतानां प्रभवो5व्यय:॥ ४॥

कुर्मरूपधारी अविनाशी एवं भूतों के उत्पादक भगवान्‌

नारायण ने ऋषियों के वचन सुनकर गंभीर वाणी में कहा।

कूर्म उवाच

प्रहेश्चर: परोऽव्ययः चतुव्यूह: सनातनः।

अनन्तछ्ाप्रमेच्छ नियन्ता सर्वतोमुख ः॥५॥

कुर्म उवाच- महे धर परम अविनाशो, चतुर्व्यूह, सनातन,

अंत, अप्रमेय, सव प्राणियों के मुखरूप और सब पर

नियंत्रण करने वाते है।

अव्यक्तं कारण यत्तन्नित्य॑ सदसदात्मकम्‌।

प्रधान॑ प्रकृतिशेति यपाहुस्तत््त्चिन्तका:॥६॥

तत्त्ववेज्ञाओं ने उन को अव्यक्त, कारण, नित्य, सत्‌

और असत्रूप, प्रधान तथा प्रकृति कहा है।

गयवर्षरसैहोंन जब्दस्पर्शविवर्जितम।

अजरं ध्रुवमक्षय्य॑ नित्य स्वात्मन्यवस्थितमू॥ ७॥

बह (परमात्मा) गन्ध, वर्णं तथा रस से हीन, शब्द ओर

स्पर्श से वर्जिते. अजर, ध्रुव, अक्षय, नित्य ओर अपनो

आत्मा में अवस्थित रहते हैं।

जगद्दोनिर्षहाभूतं परबरह्न सनातनप्‌।

विग्रहः सर्वभूतानापात्मनाधिष्ठितं पहत्‌॥ ८॥

अनाचन्पजं गूषं त्रिगुणं प्रभवाव्ययम्‌।

असाग्प्तपविज्ञेयं ब्रज्ञाग्रे समवर्तत॥ ९॥

बहौ जगत्‌ के उत्पत्तिस्थान, पहाभूत, परब्रह्म, सनातन,

सभो भूतों के विग्रहरूप, आत्मा से अधिष्ठित, सर्वकाजी,

9

अनादि, अनन्त, अजन्मा, सुक्ष्म, त्रिगुण, प्रभव, अव्यय,

असाप्यत और अविज्ञेय ब्रह्म सर्वप्रथम विद्यमान था।

गुणसाम्ये तदा तस्मिन्‌ पुरुषे वात्मनि स्थिते।

प्राकृतः प्लवो ज्ञेयो वावद्धिममुद्धवः॥ १०॥

उस समय आत्मा में अधिष्ठित पुरुष में गुण साम्य होने

पर जब तक विश्व को उत्पत्ति नहीं होती है उसे प्राकृत प्रलय

जानना चाहिए।

ब्राह्मी रात्रिरियं प्रोक्ता छह: सृष्टिरुदाइता।

अहर्न विचचते तस्य न रात्रिहवपचारत:॥ १९॥

इस प्रलय को हो ब्रह्मा की ग़त्रि कहा गया है और सृष्टि

उसका दिन कहा गया है। उपचारतः ब्रह्मा का न तो दिने

होता है और न रात हो होती है।

निशाने प्रतिवुद्धोऽसो जगदादिरनादिमान्‌।

सर्वभूतमयोऽव्यक्तादन्तर्वापीश्चरः परः॥ १२॥

प्रकृति पुरुष चैव प्रविश्याशु पहेश्वर:।

क्षोभयापास योगेन परेण परपेश्चर:॥ १३॥

निशा के अन्त में जागृत होने पर जगत्‌ के आदि, अनादि.

सर्वधूतमय, अव्यक्त, अन्तर्यामों ईश्रर और परमात्मारूप

महे श्र ने प्रकृति और पुरुष ने शीघ्र प्रवेश करके परमयोग से

क्षुभित कर दिया।

चथा पदो नरस्त्रीणां था वा मा्वोऽनिलः।

अनुप्रविष्टः क्षोभाय तथासौ योगपूर्तिमान्‌॥ १४॥

जैसे कामदेव अथवा वसंतऋतु को बायु नर और खो में

प्रविष्ट होकर उ्ें क्षुब्ध कर देती है। उसौ तरह योगम्‌

ब्रह्म ने दोनों को क्षुभित कर दिया।

स एव क्षोभको विप्राः कषोप्यश्च परमेश्वर:।

म संकोचविकासाध्यां प्रधानत्वे व्यवस्वित:॥ १५॥

है विप्रगण! वही परमेश्वर क्षोभक है और स्वयं शुष्य

होने वाला भी है। वह संकोच और विकास द्वार प्रधानत्व के

रूप में व्यवस्थित हो जाता है।

प्रधानाव्क्षोध्यपानाच्च तथा पुंसः पुरातनात्‌॥

प्रादुरासीन्महद्वीजं प्रधानपुरुषात्पकप्‌॥ १६॥

षवता को प्राप्त हुईं प्रकृति से और पुरातन पुरुष से एक

प्रधान पुरुषात्मक महान्‌ बज का प्रादुरभावि हुआ।

महानात्मा पति्ह्ा प्रुद्धिः ख्यातिरोश्चर:।

प्रज्ञा तिः स्पृतिः संविदेतस्यादिति तससपृतम्‌॥ १७॥

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