*योग और सांख्यका वर्णन * ४०७
आकाशे चिड़ियोंके और जलम मछलियोंके । विद्वानोने उसे 'हंस' कहा है। 'हंस' नामसे जिस
चलनेके चिट्ठ दिखायी नहीं पड़ते, उसी प्रकार | अविनाशी जीवात्माका प्रतिपादन किया गया है, वह
ज्ञानियोंकी मतिका भी किसीको पता नहीं चलता। | कूटस्थ अक्षर ही है। इस प्रकार जो विद्वान् उस
काल सम्पूर्ण प्राणिर्योको परकाता (नष्ट करता) | अक्षर आत्माको जान लेता है, वह जन्म-मृत्युके
है; किंनु जहाँ काल भी पकाया जाता है--जो | बन्धनसे छुटकारा पा जाता है।
कालका भी काल है, उस आत्माको कोई नहीं | ब्राह्मणो! इस प्रकार तुम्हारे पूछनेपर मैंने
जानता। फरब्रह्म परमात्मा न ऊपर है न नीचे है, न | ज्ञानयुक्त सांख्यका यथावत् वर्णन किया! अब
इधर-उधर है और न बीचमें हो; कोई किसी अंशमें | योगकी बातें बताऊँगा, सुनो। इन्द्रिय, मन और
उसको ग्रहण कर सकता है। सम्पूर्ण लोक उसके | बुद्धिकी वृत्तियोंको सब ओरसे रोककर व्यापक
भीतर ही स्थित हैं। उसके बाहर कुछ भी नहीं है। | आत्माके साथ उनकी एकता स्थापित करना ही
यद्यपि कोई धनुषसे छूटे हुए बाण अथवा मनके | योगशास्त्रके मतमें उत्तम ज्ञान है। योगी पुरुषको
समान वेगसे निरन्तर आगेकी ओर दौड़ता रहे तो | शम-दमसे सम्पन्न होना चाहिये। बह अध्यात्मशास्त्रका
भी कभी उस परमेश्वरका अन्त नहीं पा सकता। | अनुशीलन करे, आत्मामें ही अनुराग रखे, शास्त्रोंका
उससे अधिक सूक्ष्म तथा उससे बढ़कर स्थल | तत्व जाने और निष्कामभावसे पवित्र कर्मोंका
दूसरी कोई वस्तु नहीं है। उसके सब्र ओर हाथ- | अनुष्ठान करे। इस प्रकार साधनसम्पन्न होकर
पैर हैं, सब ओर नेत्र हैं तथा सब ओर सिर, मुख | योगोक्त उत्तम ज्ञानको प्राप्त करें। काम, क्रोध,
और कान हैं। वह संसारमें सबको व्याप्त करके | लोभ, भय और स्वपन-ये पाँच योगके दोष हैं;
स्थित है। छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा भी | इन्हें विद्वान् पुरुष जानते हैं। इन सभी दोषोंका
बही है। यद्यपि वह सब प्राणियोंके भीतर निश्चय | उच्छेद करके अपनेको योगका अधिकारी बनाये।
ही स्थित रहता है तो भी वह किसीको दिखायी | धीर पुरुष मनको वशम रखनेसे क्रोधपर और
नहीं देता ।* क्षर और अक्षर-ये पुरुषके दो भेद हैं। | संकल्पका त्याग करनेसे कामपर विजय पाता है।
सम्पूर्ण भूत तो क्षर (विनाशी) हैं और दिव्य | सत्त्वगुणकां सेवन करनेसे वह निद्राका नाश कर
अमृतस्वरूप चेतन आत्मा अक्षर (अविनाशी ) है । | सकता है । धैरयके द्वारा योगी शिश्न ओर उदरकी
नौ द्वारॉवाले पुर (शरीर) -का निर्माण करके जितेन्द्रिय | रक्षा करे। नेत्रोंकी सहायतासे हाथ और पैरोंकी रक्षा
तथा नियमपरायण हंस (आत्मा) उसमें वास करता | करे। मनके द्वार नेत्र और कानोंकी तथा कर्मके द्वारा
है। समस्त चराचर भूतोंका आत्मा ऐसा ही है। | मन और वाणीकी रक्षा करे। प्रमादके त्यागसे
अजन्मा आत्मा भाँति-भाँतिके विकल्पोंका त्याग | भवका ओर विद्टान् पुरुषोंक सेवनसे दम्भका
और शरीरोंका संचय करता है, इसलिये पारदर्शी त्याग करे ¶ इस प्रकार योगके साधकको
* सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतो5क्षिशिरोमुखम् । सर्वत:श्रुतिमललोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥
तदेवाणोरणुतर॑ तन््महद्धो.. महत्तरम्। तदन्त: सर्वभूतानां ध्रुव॑ तिष्ठम दृश्यते ॥
(२३५। ३००३१)
¶ क्रोधं शमेन जयति कामं संकल्पवर्जनात्। सत्तसंसेवनाद्धीरों निद्रामुच्छेत्तुमर्हति ॥
धृत्या शिश्रोदरं रेश्ेत्पाणिपादं च चक्षुपा। चक्षुः श्रोत्रं च भनसा मनो वाचं च कर्मणा ॥
अप्रमादाद् भयं जाद् दम्भं प्राज्ोपसेवनास् ॥
(२३५। ४०-- ४२)