Home
← पिछला
अगला →

४०३ + संक्षित ब्रह्मपुराण *

प्राप्त होता है। जब योगोक) चित्त परमानन्दको प्राकर | स्वरूप हैं। चरणेमिं विष्णु हाथोंमें इद्र ओर उदसें

किसी भी कर्ममें आसक नहीं होता, उस समय वह | अग्नि देवता भोक्तारूपसे स्थित रहते हैं। कां

निर्वाणपदको प्राप्त होता है। योगी अपने योगबलसे | श्रोत्र-इद्धिय और दिशाएँ हैं। जिह्ममें वाक्‌ -इद्धिय

शुद्ध, सृष्टम, गुणातीत तथा सत्वगुणसम्पन्न पुरुणोत्तमको | और सरस्वती देवताका निवास है। कान, त्वचा, नेत्र,

प्रात करके निस्संदेह मुक्त हो जाता है। जिद्ध ओर नासिका-ये पाँच जानेद्धियाँ हैं; उन्हें

भोगोंकी ओरसे निःस्पृह, सर्वत्र प्रेमपूर्ण दृष्टि रखनेवाला | विषयानुभवका द्वार बतलाया गया है। शब्द, स्पर्श,

तथा सब अनात्मपदार्थोंमें अनित्य बुद्धि रखनेवाला | रूप, रस और गन्ध--ये इन्द्रियंकि विषय हैं। इस

योगी हो मुक्त हो सकता है। जो योगवेत्ता पुरुष | महान्‌ आत्माका दर्शन नेत्रों अथवा सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे

यैराग्यके कारण इन्द्रियोंके विषयोका सेवन नहीं करता | नहीं हो सकता। यह विशुद्ध मनरूपी दीपकसे ही

और निरन्तर अध्यासयोगमें लगा रहता है, उसकी | बुद्धिमें प्रकाशित होता है। परमात्मा शब्द, स्पर्श, रूप,

युक्ति तनिक भी संदेह नहीं है। केवल पद्मासन ' रस और गन्धसे हीन, अविकार तथा शरीर और

लगानेसे और नासिकाके अग्रभागपर दृष्टि रखनेसे ही | इन्यत रहित है तो भी शरीरके भीतर ही इसका

योगकी सिद्धि नहीं होती। वास्तवे मने और | अनुसंधान करना चाहिये। जो इस विनाशशील

इन्द्रियेकि संयोग--उनकी एकाग्रताको ही योग कहते | शरीरमें अव्यक्तभावसे स्थित परमपूजित परमेश्वरका

हैं। मुनिवरो! इस प्रकार मैंने संसार-बन्धनसे मुक्तिके | चानमयौ दृष्टिसे निरन्तर साक्षात्कार करता रहता है,

साधनभूत मोक्षदायक योगका यर्णन किया। वह मृत्युके पश्चात्‌ ब्रह्मभावको प्राप्त होता है। ज्ञानीजन

मुनि बोले--द्विजक्ेश! आपके मुखरूपी समुद्रसे | विद्या-विनयसम्पन्त ब्राह्मणमें तथा गौ, हाथी, कुत्ते

निकले हुए वचनामृतका पान करनेसे हमें ठृत्ति होती | और चाण्डालमें भी समभावसे ही देखनेवाले होते

नहीं दिखायी देती। अतः पुनः मोक्षदायक योग और | है।* जिससे यह सम्पूर्ण जगत्‌ व्याप्त है, वह परमात्मा

सांख्यका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। तपस्या, | समस्त चराचर प्राणियोंके भीतर निवास करता है।

ब्रह्मयचर्य, सर्वस्वत्याग और बुद्धि-जिस उपायसे मन | जब जीवात्मा सम्पूर्ण प्राणियोंमें अपनेको और अपनेमें

और इद्धियोंकी एकाग्रता प्राप्त हो सके, वह बतलानेकी | सम्पूर्ण प्राणियोंकों स्थित देखता है, उस समय बह

कृपा कोजिये। अह्यभावको प्राप्त हो जाता है। अपने शरीरके भीतर

व्यासजीने कहा--विद्या, तप, इच्धियनिग्रह और | जैसा आत्मा है, वैसा ही दूसरेंके शरीरे भी

सर्वस्वत्यागके चिना कोई भी सिद्धि नहीं पा | है--जिस पुरुषको निरन्तर ऐसा खान वना रहता है,

सकता। सम्पूर्ण महाभूत विधाताकी पहली सृष्टि है। | वह अमृतत्व (मोक्ष)- को प्राप्त होता है| जो

बे प्राणियेंकि शरीरमें भर हुए हैं। पृथ्वौसे देहका | सम्पूर्ण प्राणियोंका आत्मा होकर सबके हितमें लगा

निर्माण हुआ है। चिकनाहट और पसोने आदि जलके | हुआ है, जिसका अपना कोई मार्ग नहीं है तथा जो

अंश हैं। अग्निसे नेत्र तथा बायुसे प्राण और अपान | ब्रह्मपदको प्राप्त करना चाहता है, उसके मार्गकी

उत्पन्न हुए हैं। नाक, कान आदिके दद्र आकाशतत्त्वके | खोज करनेमें देवता भी मोहित हो जाते हैं। जैसे

» विध्याविनयसम्पन्न ब्राह्मणे गति हस्तिनि। शुनि चैव भके च पण्डिताः समदर्शिन:॥

(२३५॥ २०)

¶ सवभूतेषु चात्पानं सर्वभूतानि चात्मनि । यदा पश्यति भूृतात्या ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥

यावागात्मनि वेदात्मा तावानात्मा परात्मनि । व एवं सतत येद सोऽमृतत्वाय कस्यते ॥

(२३५। २२-२३)

← पिछला
अगला →