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हैं); इसलिए जैसे माता पुत्र को स्तन-पान कराने के लिए अवनत होती है अथवा धर्म पत्नी अपने एति के प्रति
नग्न होती है, वैसे ही हम आपके लिए अवनत होतो हैं (अपने प्रवाह को कम करके आपको जाने का मार्ग प्रदान
करती हैं) ॥१० ॥
२७६५. यदङ्ग त्वा भरताः सन्तरेयुर्गव्यन्याम इषित इन्द्रजूतः ।
अर्षादह प्रसवः सर्गतक्त आ वो वृणे सुमतिं यज्ञियानाम् ॥११ ॥
हे (दोनों) दियो ! जब पोषणकर्ता पुरुष आपको पार करना चाहे; तब आपको पार करने के अभिलाषी वे
जन-समूह इनद्रदेव द्वारा प्रेरित होकर आपकी अनुकम्पा से पार हो जाये । आप यजन योग्य है । हम प्रतिदिन
आपके वेगवान् जल-प्रवाहो की उत्तम स्तुतिवां करते है ॥११ ॥
२७६६. अतारिषुर्भरता गव्यवः समभक्त विप्रः सुमतिं नदीनाम् ।
प्र पिन्वशध्वमिषयन्तीः सुराधा आ वक्षणाः पृणध्वं यात शीभम् ॥१२ ॥
है नदियों भरण-पोषण को लक्ष्य करके आपके पार जाने के अभिलापीजन पार हो गए । ज्ञानीजनों ने
आपके निमित्त उत्तम स्तुतियों को अभिव्यक्त किया । आप अत्रो की प्रदात्री और उत्तम ऐश्वर्यवती होकर नहरों को
जल से परिपूर्ण करें और शीघ्र गमन करें ॥६२ ॥
[ विज्ञाफ्रि आदि ऋषिगण व्यास आदि नदियों को पार करके देवसंस्कृति का संदेश लेकर अफगानिस्तान-ईरान आदि
देशों की ओर गये थे; इन ऋजाओं से यह प्रमाणित होता है । ]
२७६७. उद्र ऊर्मि: शम्या हन्त्वापो योक्त्राणि मुञ्चत ।
मादुष्कृतौ व्येनसाघ्यौ शूनमारताम् ॥९३॥
है नदियो ! आपकी तरंगें रथ की धुरी से टकराती रहें । हे दुष्कर्महीना, पापरहिता, अनिन्दनीया नदियों !
आपको कोई बाधा न हो ॥१३ ॥
[ सूक्त - ३४ |
[ ऋषि- विश्वामित्र गाधिन । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टप् ¦ |
२७६८. इन्द्र: पूर्भिदातिरदासमर्कर्विदद्रसुर्दयमानो वि शत्रून् ।
ब्रह्मजूतस्तन्वा वावृधानो भूरिदात्र आपृणद्रोदसी उभे ॥१ ॥
शत्रुओं के गढ़ को ध्वस्त करने वाले महिमावान् , धनवान् इन््रदेव ने शत्रुओं को मारते हुए अपनी तेजस्विता
से उन्हें भस्म कर दिया । स्तुतियों से प्रेरित और शरीर से वर्द्धित होते हुए विविध अस्व. धारक इन्द्रदेव ने द्यावा
ओर पृथिवी दोनों को पूर्ण किया ॥१ ॥
२७६९. मखस्य ते तविषस्य प्र जूतिमियर्मि वाचममृताय भूषन्।
इन्द्र क्षितीनामसि मानुषीणां विशां दैवीनामुत पूर्वयावा ॥२ ॥
हे इनद्रदेव ! आप पूजनीय और बलशाली हैं । आपको विभूषित करते हुए हम अमरत्व-प्राप्ति के लिए प्रेरक
स्तोत्रों का उच्चारण करते हैं। आप हम मनुष्यो और देवों के अग्रगामी हों ॥२ ॥
२७७०. इन्द्रो वृत्रमवृणोच्छर्धनीति: प्र मायिनाममिनाइर्पणीतिः ।
अहन्व्य॑समुशधग्वनेष्वाविर्धेना अकृणोद्राम्याणाम् ॥३ ॥