४८ ऋग्वेद संहिता पाग - २
देशवर्य-राशि से सम्पन्न विपाशा नदी के पास गये । बछड़े के प्रति स्नेहाभिलाषिणी गौ ओं के सपान ये नदियाँ एक
हो लक्ष्य-स्थान समुद्र की ओर सतत बहती हुई जा रही हैं ॥३ ॥
२७५८. एना वयं पयसा पिन्वमाना अनु योनिं देवकृतं चरन्तीः ।
न वर्तवे प्रसवः सर्गतक्तः किंयुर्विप्रो नद्यो जोहवीति ॥४ ॥
हम नदियाँ अपने जल-्रवाह से सबको तृप्त करती हुईं देवों दरार स्थापित स्थान कौ ओर बहती हुई जा रही
हैं। अनवरत प्रवहमान हम अपने प्रयास से कभी भी विश्राम नहीं लेती हैं (यह तो हमारा सहज सामान्य क्रम है,
फिर ब्राह्मण विश्वामित्र द्वारा हमारी स्तुति क्यों कौ जा रहो है ? ॥४ ॥
२७५९. रमध्वं मे वचसे सोम्याय ऋतावरीरुप मुहूर्तमेवैः ।
प्र सिन्धुमच्छा बृहती मनीषावस्युरह्वे कुशिकस्य सूनुः ॥५ ॥
है जलवतौ नदियो ! आप हमारे नग्न और मधुर वचनो को सुनकर अपनी गति को एक क्षण के लिए विराम
दे दें हम कुशिक पत्र अपनी रक्षा के लिए महती स्तुतियों द्वारा आप नदियों का भली प्रकार सम्मान करते हैं ॥५ ॥
२७६०. इनदरो अस्माँ अरदद्नाज़बाहुरपाहन्वृत्रं परिधिं नदीनाम्।
देवोऽनयत्सविता सुपाणिस्तस्य वयं प्रसवे याम उर्वीः ॥६ ॥
(नदियों की वाणी) हे विश्वामित्र ! बज्रधारों इद्धदेव ने हमें खोदकर उत्पन्न किया । नदियों के प्रवाह को
रोकः; वाले वृत्र को उन्होंने मारा । सबके प्रेरक, उत्तम हाथों वाले और दीप्तिमान् इद्धदेव ने हमें बढ़ने के लिए
ररित किया । उनकी आज्ञा के अनुसार ही हम जल से परिपूर्ण होकर गमन करती हैं ॥६ ॥
२७६३१, प्रवाच्यं शश्रधा वीर्य १न्तदिन्द्रस्य कर्म यदहिं विवृश्चत् ।
वि वज्रेण परिषदो जघानायन्नापोऽयनमिच्छमानाः ॥७ ॥
इन्द्रदेव ने अहि नामक असुर को मार; उनके वे पराक्रम और कर्म सर्वदा वर्णनीव हैं । जब इद्धदेव ने अपने
चारों ओर स्थित असुरौ को मारा, तब जल-प्रवाह समुद्र से मिलने की इच्छा करते हुए प्रवाहित हुआ ॥७ ॥
२७६२. एतद्भचो जरितर्मापि मृष्ठा आ यत्ते घोषानुत्तरा युगानि।
उक्थेषु कारो प्रति नो जुषस्व मा नो नि कः पुरुषत्रा नमस्ते ॥८ ॥
हे स्तोता (विश्वामित्र) ! अपने ये स्तुति-वचन कभी भूलना नहँ । भावी समय में यज्ञो मे इन वचनो की
उदुघोषणा द्वारा आप हमारी सेवा करें । हप (दोनों नदियाँ) आपको नमस्कार करती हैं । पुरुषो दवारा सम्पादित कर्मों
में कभी भी हमारों उपेक्षा न करें ॥८ ॥
२७६३. ओ षु स्वसारः कारवे शृणोत ययौ वो दूरादनसा रथेन ।
नि षू नमध्वं भवता सुपारा अधोअक्षाः सिन्धवः स्रोत्याभि: ॥९॥
हे भगिनी रूप (दोनो) नदियो ! हमारी स्तुति भलीप्रकार सुनें । हम आपके पास अति दूरस्थ देश से रथ और
शकट को लेकर आये हैं । आप अपने प्रवाहो के साथ इतनी झुक जायें कि रथ कौ धुरी से नीचे हो जायें, जिससे
हम सरलता से पार हो जायें ॥९ ॥
२७६४ आ ते कारो शृणवामा वचांसि ययाथ दूरादनसा रथेन ।
नि ते नंसे पीप्यानेव योषा मर्यायेव कन्या शश्चचै ते ॥१० ॥
हे स्तोता ! हम (दोनों नदियाँ) आपकी स्तुतियाँ सुनती हैं (आप दूरस्थ देश से रथ और शकट के साथ आए