* अध्याय २१४ «
"व्यान ' अड्ञोंको पीड़ित करता है। यही व्याधिको
कुपित करता है ओर कण्ठको अवरुद्ध कर देता
है। व्यापनशील होनेसे इसे 'व्यान' कहा गया है।
“नागवायु' उद्गार (डकार-वमन आदि)-में और
"कूर्मवायु ' नयनोकि उन्मीलन (खोलने)-में प्रवृत्त
होता है। ' कृकर" भक्षणे और *देवदत्त' वायु
जंभारईये अधिष्ठित है । ' धनंजय ' पवनका स्थान
घोष है। यह मृत शरीरका भी परित्याग नहीं
करता। इन दसोंद्वारा जीव प्रयाण करता है,
इसलिये प्राणभेदसे नाडीचक्रके भी दस भेद
हैं॥ १--१४॥
संक्रान्ति, विषुव, दिन, रात, अवन, अधिमास,
ऋण, ऊनरात्र एवं धन--ये सूर्यकी गतिसे होनेवाली
दस दशाएँ शरीरे भी होती हैं। इस शरीरें
हिक्रा (हिचकी ) ऊनयत्र, विजृम्भिका (जैंभाई)
अधिमास, कास (खाँसी) ऋण और निःश्वास
* धन" कहा जाता है । शरीरगत वामनादी ' उत्तरायण"
और दक्षिणनाड़ी ' दक्षिणायन" है । दोनोंके मध्यमें
नासिकाके दोनों छिद्रोंसे निर्गत होनेवाली श्ासवावु
* विषुव ' कहलाती है । इस विषुववायुका ही अपने
स्थानसे चलकर दूसरे स्थानसे युक्त होना ' संक्रान्ति"
है । द्विजश्रेष्ठ वसिष्ठ ! शरीरके मध्यभागे ' सुषुम्णा"
स्थित है, वामभागमें “इड़ा' और दक्षिणभागे
“पिड्जला' है। ऊर्ध्वगतिवाला प्राण 'दिन' माना
गया है और अधोगामी अपानको “रात्रि” कहा
गया है। एक प्राणवायु ही दस वायुके रूपमें
विभाजित है। देहके भीतर जो प्राणवायुका
आयाम (बढ़ना) है, उसे “चन्द्रग्रहण' कहते हैं।
वही जब देहसे ऊपरतक बढ़ जाता है, तब उसे
"सूर्यग्रहण" मानते हैं ॥ १५--२०॥
साधक अपने उदरमें जितनी वायु भरी जा
सके, भर ले। यह देहको पूर्ण करनेवाला, ' पूरक”
प्राणायाम है। धस निकलनेके सभी द्वारोंको
रोककर, श्रासोच्छासकी क्रियासे शून्य हो परिपूर्ण
कुम्भकी भाँति स्थित हो जाय-इसे “कुम्भक'
प्राणायाम कहा जाता है। तदनन्तर मन्त्रवेत्ता
साधक ऊपरकी ओर एक ही नासारन्धरसे वायुको
निकाले। इस प्रकार उच्छासयोगसे युक्त हो
वायुका ऊपरकी ओर विरेचन (निःसारण) करे
(यह 'रेचक'” प्राणायाम है)। यह श्वासोच्छासकी
क्रियाद्वारा अपने शरीरमें विराजमान शिवस्वरूप
ब्रह्मका ही (* सोऽहं ' 'हंसः 'के रूपमें) उच्चारण
होता है, अत: तत्त्ववेत्ताओंके मतमें वही “जप
कहा गया है। इस प्रकार एकं तत्त्ववेत्ता योगीन्द्र
श्रास-प्रश्चासद्वारा दिन-रातमें इक्कीस हजार छः
सौकी संख्यामें मन्त्र-जप करता है। यह ब्रह्मा,
विष्णु और महे श्वरसे सम्बन्ध रखनेवाली 'अजपा'
नामक गायत्री है। जो इस अजपाका जप करता
है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। चद्धमा, अग्नि तथा
सूर्यसे युक्त मूलाधार-निवासिनी आच्या कुण्डलिनी-
शक्ति हृदयप्रदेशमें अंकुकके आकारमें स्थित है।
सात्विक पुरुषोंमें उत्तम वह योगी सृष्टिक्रमका
अवलम्बन करके सृष्टिन्यास करे तथा ब्रह्मरन्श्रवर्ती
शिवसे कुण्डलिनीके मुखभागमें झरते हुए अमृतका
चिन्तन करे। शिवके दो रूप हैं-सकल और
निष्कल। सगुण साकार देहमें विराजित शिवको
"सकल ' जानना चाहिये और जो देहसे रहित हैं,
वे "निष्कल" कहे गये हैं। वे 'हंस-हंस'का जप
करते हँ । "हंस" नाम है-' सदाशिव" का। जैसे
तिलोंमें तेल और पुष्पोमिं गन्धको स्थिति है, उसी
प्रकार अन्तर्यामी पुरुष ( जीवात्मा ) -मे बाहर और
भीतर भी सदाशिवका निवास है । ब्रह्माका स्थान
इदयमें है, भगवान् विष्णु कण्ठमें अधिष्ठित हैं,
तालुके मध्यभागे रुदर, ललाटमें महेश्वर और
प्राणोके अग्रभागे सदाशिवका स्थान है। उनके
अन्तमें परात्पर ब्रह्म विराजमान हैं। ब्रह्मा, विष्णु,
रुद्र, महेधर ओर सदाशिव -इन पाँच रूपोंमें सकल '
(साकार या सगुण) परमात्माका वर्णन किया गया