है। इसके विपरीत परमात्मा, जो निर्गुण निराकाररूप
है, उसे “निष्कल' कहा गया है॥ २१--३२॥
जो योगी अनाहत नादको प्रासादतक उठाकर
अनवरत जप करता है, वह छः महीनोंमें ही
सिद्धि प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है।
गमनागमनके ज्ञानसे समस्त पापोंका क्षय होता है
और योगी अणिमा आदि सिद्धियों, गुणों और
ऐश्वर्यको छः महीनोंमें ही प्राप्त कर लेता है।
मैने स्थूल, सूक्ष्म और परके भेदसे तीन प्रकारके
प्रासादका वर्णन किया है। प्रासादको हस्व, दीर्घ
और प्लुत -इन तीन रूपोंमें लक्षित करे । ' हस्व"
पार्पोको दग्ध कर देता है, "दीर्घ" मोक्षप्रद होता
है और ' प्लुत" आप्यायन (तृप्तिप्रदान) करनेमें
समर्थ है। यह मस्तकपर बिन्दु (अनुस्वार) -से
विभूषित होता है। हस्व-प्रासाद- मन्त्रके आदि
ओर अन्तमें "फट् ' लगाकर जप किया जाय तो
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यह मारण कर्म्म हितकारक होता है । यदि उसके
आदि-अन्तपें “नमः” पद जोड़कर जपा जाय तो
वह आकर्षण-साधक बताया गया है । महादेवजीके
दक्षिणामूर्तिरूप-सम्बन्धी मन्त्रका खड़े होकर यदि
पाँच लाख जप किया जाय तथा जपके अन्तमें
घीका दस हजार होम कर दिया जाय तो वह
मन्त्र आप्यायित (सिद्ध) हो जाता है। फिर उससे
वशोकरण, उच्चाटन आदि कार्य कर सकते
हैं॥ ३३--३८६॥
जो ऊपर शून्य, नीचे शून्य और मध्यमे भी शून्य
है, उस त्रिशून्य निरामय मन्त्रकों जो जानता है, बह
द्विज निश्चय ही मुक्त हो जाता है। पाँच मन्त्रोंके
मेलसे महाकलेवरधारी अड़तीस कलाओंसे युक्त
प्रासादमन्त्रको जो नहीं जानता है, वह आचार्य नहीं
कहलाता है। जो ओंकार, गायत्री तथा रुद्रादि
मन्त्रोंको जानता है, वही गुरु है ॥ ३९--४१॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें " नाङ्ीचक्रकथन * नामक
दो सौ चौदहवां अध्याय पूरा हुआ# २१४१
नन ^ ^~
दो सौ पंद्रहवाँ अध्याय
संध्या-विधि
अग्निदेव कहते हैं-- वसिष्ट! जो पुरुष
3>कारको जानता है, बह योगी और विष्णुस्वरूप
है। इसलिये सम्पूर्ण मनत्रोंके सारस्वरूप और सब
कुछ देनेवाले 3»कारका अभ्यास करना चाहिये।
समस्त मन्त्रोंके प्रयोगमें ३»कारका सर्वप्रथम
स्मरण किया जाता है। जो कर्म उससे युक्त है,
वही पूर्ण है। उससे विहीन कर्म पूर्ण नहीं है।
आदिमे ॐकारे युक्त (* भू: भुवः स्व: '--ये )
तीन शाश्वत महाव्याहतियों एवं ( " तत्सवितुवरिण्यं,
भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्'
इस ) तीन पदोंसे युक्त गायत्रीको ब्रह्मका (वेद
अथवा ब्रह्माका) मुख जानना चाहिये । जो मनुष्य
नित्य तीन वर्षोतक आलस्यरहित होकर गायत्रीका
जप करता है, वह वायुभूत ओर आकाशस्वरूप
होकर परत्रह्मको प्राप्त होता है। एकाक्षर उकार
ही परब्रह्म है और प्राणायाम ही परम तप है।
गायत्री-मन्ञसे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। मौन रहनेसे
सत्यभाषण करना ही श्रेष्ठ है_॥ १--५॥
गायत्रीकी सात आवृत्ति पापोंका हरण करनेवाली
है, दस आवृत्तियोसे वह जपकर्ताको स्वर्गकी
प्राप्ति कराती है और बीस आवृत्ति करनेपर तो
स्वयं सावित्री देवी जप करनेवालेको ईश्वरलोकमें
ले जाती है। साधक गायत्रीका एक सौ आठ
बार जप करके संसार-सागरसे तर जाता है।
* शकाक्षर॑ पर॑ ब्रह्य प्राणायामः परं तपः । साविष्यात्तु पर॑ ऋस्ति मौनात् क्तं विशिष्यते॥ ( २१५।५)