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आवरणको अपनेमें लीन करके शक्ति आदिके

साथ शिवका साक्षात्कार करता है। अन्तःकरणकी

जो बोध नामक वृत्ति है, बह निगड़ (बेड़ी)

आदिकी भाँति पाशरूप होनेके कारण महेश्वरको

प्रकाशित करनेमें समर्थ नहीं होती। दीक्षा ही

पाशका उच्छेद करनेमें सर्वोत्तम हेतु है, अतः

शास्त्रोक्त विधिसे मन्त्रदीक्षाका आचरण करना

चाहिये। दीक्षा लेकर अपने वर्णके अनुरूप सदाचारमें

तत्पर रहकर नित्य-नैमित्तिक कर्मोंका अनुष्ठान

करना चाहिये। अपने वर्ण तथा आश्रम-सम्बन्धी

आचारोंका मनसे भी लङ्घन न करे। जो मानव

जिस आश्रमे दीक्षित होकर दीक्षा ले, वह उसीमें

रहे और उसीके धर्मोका निरन्तर पालन करे । इस

प्रकार किये हुए कर्म भी बन्धनकारक नहीं होते ।

मन््रानुष्ठानजनित एक ही कर्म फलदायक होता

है। दीक्षित पुरुष जिन-जिन लोकोंके भोर्गोकौ

इच्छा करता है, मन्त्राराधनकी सामर्ध्यसे वह उन

सबका उपभोग करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जो

संक्षिप्त नारदपुराण

मनुष्य दीक्षा ग्रहण करके नित्य और नैमित्तिक

कर्मोंका पालन नहीं करता, उसे कुछ कालतक

पिशाचयोनिमें रहना पड़ता है। अतः दीक्षित पुरुष

नित्य-नैमित्तिक आदि कर्म अवश्य करे। नित्य-

नैमित्तिक आचारका पालन करनेवाले मनुष्यको

उसको दीक्षामे त्रुटि न आनेके कारण तत्काल मोक्ष

प्राप्त होता है। दीक्षाके द्वारा गुरुके स्वरूपम स्थित

होकर भगवान्‌ शिव सबपर अनुग्रह करते हैं। जो

लोक-परलोकके स्वार्थे आसक्त होकर कृत्रिम

गुरुभक्तिका प्रदर्शन करता है, वह सब कुछ

करनेपर भी विफलताको हौ प्राप्त होता है और

उसे पग-पगपर प्रायश्चित्तका भागी होना पड़ता

है। जो मन, वाणी और क्रियाद्वारा गुरुभक्तिमें

तत्पर है, उसे प्रायश्चित्त नहीं प्राप्त होता और पग-

पगपर सिद्धि लाभ होता है। यदि शिष्य गुरुभक्तिसे

सम्पन्न और सर्वस्व समर्पण करनेवाला हो तो

उसके प्रति मिथ्या मन््रका प्रयोग करनेवाला गुरु

प्रायशित्तका भागौ होता है! । (पूर्व० ६३ अध्याय)

१. इस " तृतीय पाद" मैं अधिकांश सकाम अनुषनोंका प्रसङ्ग दै । इसमें देवताओंके तथा भगवानृके विभिन्न स्वरूपेकि

ध्यान-पूजनका निरूपण है तथा आयधनकी मुन्दर-सुन्दर विधियां बतलायी गयी है । उन विधियेकि अनुसार श्रद्धा-

विश्वासपूर्वक अनुष्ठान करनेसे उल्िखित फल अवश्य मिलता है । जैसे विविध तार्पोकौ निवृति तथा दष पदार्थोकी प्राप्तिक लिये

अन्यान्य आधिभौतिक साधन हैं, वैसे हौ ये आधिदैविक साधन भी हैं एवं ये भौतिक साधनोंकी अपेक्षा अधिक निर्दोष तथा

सहज है और प्रतिवन्धकक्ता नाश करके नवीन प्रारव्धके निर्माणे हेतु होनेके कारण ये उनकी अपेक्षा अधिक लाभप्रद हैं ह ।

और स्वयं भगवान्‌का तो सकाम आराधने करनेपर (यदि ये उचित समझें तो कामनाकी पूर्ति करके अथवा पूर्ति न करके भी)

अन्तःकरणकी शुद्धिद्वाण अन्तम अपनो प्राप्ति कर देते हैं, इस दृष्टिसे इस प्रसड्कों निश्चय हौ बड़ी उपादेयता है।

तथापि अल्पायु मनुष्यके लिये यह विचारणीय है कि अपने जीवनको क्या सांसारिक भोगपदाथौकी प्रात्तिके प्रयत्ष और

उनके उपभोगमें लगाना हो दृष्ट है? मनुष्य जीवन क्षणभंगुर है और वह है केवल भगवत्पाप्तिके लिये ही। संसारके भोग

तो प्रत्येक योनिमें ही प्रारब्धानुसार प्रास होति है ओर उनका उपभोग भौ जीव करता ही है। मनुष्य-जीवन भी यदि उन्ही

क्षणभंगुर, नाशवान्‌ दुःखयोनि और जीवको जन्म-मरणके चक्रमें डालनेवाले भोगप्दार्थकि लिये सकाम उपासनामें ही लगा

दिया जाय तो यह बुद्धिमानोका कार्य नहीं है! जो कृपामय भगवान्‌ परम दुर्लभ मोक्षकों या स्वयं अपने-आपको देनेके

लिये प्रस्तुत हैं, उनसे दुःखपरिणामी और अनित्य भोग माँगना भगवान्‌के तत्तको और भक्तिके महत््वको न समझना हो

है। जो पुरुष किसी वस्तुको प्राप्त करनेकी इच्छासे भगवानृकौ भजता है, उसका ध्येय वह वस्तु है, भगवान्‌ नहीं है। वह

वस्तु साध्य है और भगवान्‌ तथा उनकी भक्ति साधन है। यदि किसी मङ्गलकारी कारणवज्ञ ही उसके अभीष्टकी प्रापि

देर होगी तो यह भगवानूकी भक्तिको छोड़ दे सकता है। अतएब सकााम भावसे की हुईं उपासना एक प्रकाससे काम्य वस्तुको

ही उपासना है, भगवान्‌की नहों। इस बातको भलीभाँति समझ लेना चाहिये और अपनी रुचिके अनुसार भगवान्‌की उपासना

इस प्रसड्रमें आयी हुई पद्धतिके अनुकूल अवश्य करनौ चाहिये, पर वह करनौ चाहिये--निष्काम प्रेमभावसे केवल

भावानकी प्रसक्नताके लिये ही। इसी मनुष्य-जन्मकी सार्थकता है।

इसके अतिरिक्त यह चातर भी है कि सकाम अनुष्ठानका फल प्रतिबन्धककी प्रबलता और सरलताके अनुसार

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