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अ" ३५ ]

परारिजाततरोः पुष्पमञ्रीर्वनिताजनः ।

बिभर्ति यस्य भृत्यानां सोऽप्येषां न महीपतिः ॥ २५

समस्तभूभृतौ नाथ उग्रसेनस्स तिष्ठतु ।

अद्य निष्कौरवामुर्वी कृत्वा यास्यामि तत्पुरीम्‌ ॥ २६

कर्ण दुर्योधनं द्रोणपद्य भीष्म सबाह्विकम्‌ ।

दुदशासनादीन्भूरि च भूरिश्रवसमेव च ॥ २७

सोमदत्तं शलं चैव भीमार्जुनयुधिष्ठिरान्‌ ।

यमौ च कौरवाश्चन्यानहत्वा साश्ररधद्धिपान्‌ ॥ २८

वीरमादाय तं साम्बं सपत्नीकं ततः पुरीम्‌ ।

द्वारकामुग्रसेनादीन्गत्वा द्रक्ष्यापि बान्धवान्‌ ॥ २९

अथ वा कौरवावासं समस्तैः कुरुभिस्ह ।

भागीरथ्यां क्षिपाम्याशु नगरं नागसाह्वयम्‌ ॥ ३०

श्रीपयकार उक्त

इत्युक्त्वा पदरक्ताक्षः कर्षणाधोमुखं हलम्‌ ।

प्राकारवप्रदर्गस्य चकर्ष मुसलायुधः ॥ ३१

आघूर्णितं तत्सहसा ततो वै हास्तिनं पुरम्‌ ।

दृष्टा संश्षन्धहदयाश्चक्षभुः सर्वकौरवाः ॥ ३२

राम राम महाबाहो क्षम्यतां क्षम्यतां त्वया ।

उपसंद्धियतां कोपः प्रसीद मुसलायुध ॥ ३३

एष साम्बस्सपत्रीकस्तव निर्यातितो वत्व ।

अविज्ञातप्रभावाणा क्षम्यतापपराधिनाप्‌ ॥ ३४

श्रीपरङर उवाच

ततो निर्यातयामासुस्साप्वं पत्रीसमन्वितम्‌ ।

निष्क्रम्य स्वपुरानुर्ण कौरवा मुनिपुङ्गव ॥ ३५

भीष्मद्रोणकृपादीनां प्रणम्य वदतां प्रियम्‌ ।

क्षान्तमेव मयेत्याह बल्लो बलवतां वरः ॥ ३६

अद्याप्याधूर्णिताकारं लक्ष्यते तत्पुरं द्विज ।

एष प्रभावो रापस्य बलौर्योपलक्षणः ॥ ३७

ततस्तु कौरवास्साम्बै सम्पूज्य हलिना सह ।

प्रषयामासुरुद्राहधनभायसिमन्वितम्‌ ॥ ३८

पञ्चम अदा

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कौरवोंको धिकार है जिन्हें सैकड़ों मनुष्योंके उच्छ

राजसिंहासनमें इतनी तुष्टि है ॥ २४ ॥ जिनके सेवकोकी

स््याँ भी पारिजात-वृक्षकी पुष्प-मञ्जरी धारण करती हैं यह

भी इन कौरवोंके महाराज नहीं है ? [यह कैसा आश्चर्य

है ?] ॥ २५॥ बे उम्रसेन ही सम्पूर्ण राजाओंके महाराज

बनकर रहें। आज मैं अके ही पृथिवीको कौरवहीन

करके उनकी द्वास्कापुरीको जाकँगा॥ २६ ॥ आज कर्ण,

दुर्योधन, द्रोण, भीष्य, बद्धिक, दुश्झासनादि, भूरि,

भूरिश्रवा, सोमदत्त, दाल, भीम, अर्जुन, युधिष्ठिर, नकुल

और सहदेव तथा अन्यान्य समस्त कौरवोको उनके हाधी-

घोड़े और रथके सहित मारकर तथा नववधुके साथ वीरवर

साम्बको लेकर ही मैं ट्वारकापुरीमें जाकर उम्रसेन आदि

अपने बन्धु-बान्धवॉको देखुगा॥२७--२९॥ अथवा

समस्त कौरवोंके सहित उनके निवासस्थान इस हस्तिनापुर

नगरको ही अभी गङ्गाजीये फेंके देता हूँ" ॥ ३० ॥

श्रीपराश्षरजी बोले--ऐसा कहकर मदसे अरुणनयन

मुसलायुध श्रीबलभद्रजीने हलकी नॉकको हस्तिनापुरके

खाई ओर दुर्गसे युक्त प्राकारके मूलमें कगाकर

खींचा ॥ ३१॥ उस समय सम्पूर्ण हस्तिनापुर सहसरा

डगमगाता देख समस्त कौरवगण क्षुब्धचित्त होकर भयभीत

हो गये॥ ३२ ॥ [और कहने ठगे--] “हे राम ! हे

राम ! हे महायाहो ! क्षमा करो, क्षमा करो | हे मुसलायुध !

अपना कोप दान्त करके प्रसन्न होइये ॥ ३३ ॥ हे बलराम !

हम आपको पत्नीके सहित इस साम्बको सौंपते हैं। हम

आपका प्रभाव नहीं जानते थे, इसीसे आपका अपराध

किया; कृपया क्षमा कीजिये" ॥ ३४ ॥

श्रीपरादारजी बोले--हे मुनिश्रेष्ठ तदनन्तर कौरवोने

तुरन्त ही अपने नगरसे बाहर आकर पत्नीसहित साम्बको

श्रीबलरामजीके अर्पण कर दिया ॥ ३५॥ तब प्रणामपूर्वक

प्रिय वाक्य बोलते हुए भौम, द्रोण, कृप॒ आदिसे वीरवर

बलरामजीने कह्ा-- “अच्छा मैंने क्षमा किया" ॥ ३६ ॥ है

द्विज ! इस समय भी हस्तिनापुर [ गज़ाकी ओर ] कुछ

झुका हुआ-सा दिखायो देता है, यह श्रीबलरामजीके बल

ओर शुरवीरताका परिचय देनेवाल्य उनका प्रभाव ही

है ॥ ३७ ॥ तदनन्तर कौरबोनि बलरामजीके सहित साप्यका

पूजन किया तथा बहुत-से दहेज और वधूके सहित उन्हें

द्वास्कापुरी भेज दिया ॥ ३८ ॥

=== क ~~

इति श्रीविष्णूप्राणे पञ्चेऽदो पञ्च्रिरोऽध्यायः ॥ ३५॥

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