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परारिजाततरोः पुष्पमञ्रीर्वनिताजनः ।
बिभर्ति यस्य भृत्यानां सोऽप्येषां न महीपतिः ॥ २५
समस्तभूभृतौ नाथ उग्रसेनस्स तिष्ठतु ।
अद्य निष्कौरवामुर्वी कृत्वा यास्यामि तत्पुरीम् ॥ २६
कर्ण दुर्योधनं द्रोणपद्य भीष्म सबाह्विकम् ।
दुदशासनादीन्भूरि च भूरिश्रवसमेव च ॥ २७
सोमदत्तं शलं चैव भीमार्जुनयुधिष्ठिरान् ।
यमौ च कौरवाश्चन्यानहत्वा साश्ररधद्धिपान् ॥ २८
वीरमादाय तं साम्बं सपत्नीकं ततः पुरीम् ।
द्वारकामुग्रसेनादीन्गत्वा द्रक्ष्यापि बान्धवान् ॥ २९
अथ वा कौरवावासं समस्तैः कुरुभिस्ह ।
भागीरथ्यां क्षिपाम्याशु नगरं नागसाह्वयम् ॥ ३०
श्रीपयकार उक्त
इत्युक्त्वा पदरक्ताक्षः कर्षणाधोमुखं हलम् ।
प्राकारवप्रदर्गस्य चकर्ष मुसलायुधः ॥ ३१
आघूर्णितं तत्सहसा ततो वै हास्तिनं पुरम् ।
दृष्टा संश्षन्धहदयाश्चक्षभुः सर्वकौरवाः ॥ ३२
राम राम महाबाहो क्षम्यतां क्षम्यतां त्वया ।
उपसंद्धियतां कोपः प्रसीद मुसलायुध ॥ ३३
एष साम्बस्सपत्रीकस्तव निर्यातितो वत्व ।
अविज्ञातप्रभावाणा क्षम्यतापपराधिनाप् ॥ ३४
श्रीपरङर उवाच
ततो निर्यातयामासुस्साप्वं पत्रीसमन्वितम् ।
निष्क्रम्य स्वपुरानुर्ण कौरवा मुनिपुङ्गव ॥ ३५
भीष्मद्रोणकृपादीनां प्रणम्य वदतां प्रियम् ।
क्षान्तमेव मयेत्याह बल्लो बलवतां वरः ॥ ३६
अद्याप्याधूर्णिताकारं लक्ष्यते तत्पुरं द्विज ।
एष प्रभावो रापस्य बलौर्योपलक्षणः ॥ ३७
ततस्तु कौरवास्साम्बै सम्पूज्य हलिना सह ।
प्रषयामासुरुद्राहधनभायसिमन्वितम् ॥ ३८
पञ्चम अदा
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कौरवोंको धिकार है जिन्हें सैकड़ों मनुष्योंके उच्छ
राजसिंहासनमें इतनी तुष्टि है ॥ २४ ॥ जिनके सेवकोकी
स््याँ भी पारिजात-वृक्षकी पुष्प-मञ्जरी धारण करती हैं यह
भी इन कौरवोंके महाराज नहीं है ? [यह कैसा आश्चर्य
है ?] ॥ २५॥ बे उम्रसेन ही सम्पूर्ण राजाओंके महाराज
बनकर रहें। आज मैं अके ही पृथिवीको कौरवहीन
करके उनकी द्वास्कापुरीको जाकँगा॥ २६ ॥ आज कर्ण,
दुर्योधन, द्रोण, भीष्य, बद्धिक, दुश्झासनादि, भूरि,
भूरिश्रवा, सोमदत्त, दाल, भीम, अर्जुन, युधिष्ठिर, नकुल
और सहदेव तथा अन्यान्य समस्त कौरवोको उनके हाधी-
घोड़े और रथके सहित मारकर तथा नववधुके साथ वीरवर
साम्बको लेकर ही मैं ट्वारकापुरीमें जाकर उम्रसेन आदि
अपने बन्धु-बान्धवॉको देखुगा॥२७--२९॥ अथवा
समस्त कौरवोंके सहित उनके निवासस्थान इस हस्तिनापुर
नगरको ही अभी गङ्गाजीये फेंके देता हूँ" ॥ ३० ॥
श्रीपराश्षरजी बोले--ऐसा कहकर मदसे अरुणनयन
मुसलायुध श्रीबलभद्रजीने हलकी नॉकको हस्तिनापुरके
खाई ओर दुर्गसे युक्त प्राकारके मूलमें कगाकर
खींचा ॥ ३१॥ उस समय सम्पूर्ण हस्तिनापुर सहसरा
डगमगाता देख समस्त कौरवगण क्षुब्धचित्त होकर भयभीत
हो गये॥ ३२ ॥ [और कहने ठगे--] “हे राम ! हे
राम ! हे महायाहो ! क्षमा करो, क्षमा करो | हे मुसलायुध !
अपना कोप दान्त करके प्रसन्न होइये ॥ ३३ ॥ हे बलराम !
हम आपको पत्नीके सहित इस साम्बको सौंपते हैं। हम
आपका प्रभाव नहीं जानते थे, इसीसे आपका अपराध
किया; कृपया क्षमा कीजिये" ॥ ३४ ॥
श्रीपरादारजी बोले--हे मुनिश्रेष्ठ तदनन्तर कौरवोने
तुरन्त ही अपने नगरसे बाहर आकर पत्नीसहित साम्बको
श्रीबलरामजीके अर्पण कर दिया ॥ ३५॥ तब प्रणामपूर्वक
प्रिय वाक्य बोलते हुए भौम, द्रोण, कृप॒ आदिसे वीरवर
बलरामजीने कह्ा-- “अच्छा मैंने क्षमा किया" ॥ ३६ ॥ है
द्विज ! इस समय भी हस्तिनापुर [ गज़ाकी ओर ] कुछ
झुका हुआ-सा दिखायो देता है, यह श्रीबलरामजीके बल
ओर शुरवीरताका परिचय देनेवाल्य उनका प्रभाव ही
है ॥ ३७ ॥ तदनन्तर कौरबोनि बलरामजीके सहित साप्यका
पूजन किया तथा बहुत-से दहेज और वधूके सहित उन्हें
द्वास्कापुरी भेज दिया ॥ ३८ ॥
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इति श्रीविष्णूप्राणे पञ्चेऽदो पञ्च्रिरोऽध्यायः ॥ ३५॥
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