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* सप्तम स्कन्ध *
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है मौनि मौ ममः ममौ मौ मै मौ मै मौ मैः जौ औ के औ औ के हे औ औ के औ नि के हे हे के नि है है ही है है हे कि है हे के के हे नि है मौ औ नौ औ है मौ कक मौ औ मै मौ नि कि
जितेन्द्रिय होकर अपनी समस्त वृत्तियोंसे मुझे प्रसन्न
थे। इसलिये बड़े-बड़े लोगोंकों प्रलोभनमें डालनेवाले
करनेका ही यल्न करते हैं॥ ५४ ॥ वरोंके द्वारा प्रलोभित किये जानेपर भी उन्होंने उनकी इच्छा
असुरकुलभूषण प्रह्दजी भगवानके अनन्य प्रेमी नहीं की ॥ ५५॥
ऋ जे के के के
दसवाँ अध्याय
प्रद्मादजीके राज्याभिषेक और त्रिपुरदहनकी कथा
नारदजी कहते हैं--प्रह्ददजीने बालक होनेपर भी
यही समझा कि वरदान मांगना प्रेम-भक्तिका विप्र है;
इसलिये कुछ मुसकराते हुए वे भगवानसे बोले ॥ १॥
बरह्ादजीने कहा-प्रभो! मैं जन्मसे ही
विषय-भोगोंमें आसक्त हूँ, अब मुझे इन वरोक द्रा आप
लुभाइये नहीं। मैं उन भोगोकि सङ्गसे डरकर, उनके द्वार
होनेबाली तवर वेदनाका अनुभव कर उनसे छूटनेको
अभिलाषासे हौ आपकी शरणमे आया हूँ॥२॥
भगवन् ! मुझमें धक्तके लक्षण है या नहीं--यह जाननेके
लिये आपने अपने धक्तको वरदान माँगनेकी ओर प्रेरित
किया है। ये विषय-भोग हृदवकी गाँठकों और भी
मजबूत करनेवाले तथा बार-बार जन्म-मृत्युके चरमे
डालनेवाले हैँ ॥ ३॥ जगद्गु ! परीक्षाके सिवा एेसा
कडनेका और कोई कारण नहीं दीखता; क्योंकि आप परम
दयालु हैं। (अपने भक्तको भोगॉमें फैसानेवाला वर कैसे
दे सकते हैं ?2) आपसे जो सेवक अपनी कामनाएँ पूर्ण
करना चाहता है, वह सेवक नहीं; वह तो लेन-देन
करनेवाला निरा बनिया है॥४॥ जो स्वामीसे अपनी
कामनाओंकी पूर्ति चाहता है, चह सेवक नहों; और जो
सेबकसे सेवा करानेके लिये, उसका स्वामी बननेके लिये
उसकी कामनाएँ पूर्ण करता है, वह स्वामी नहीं ॥ ५॥ मैं
आपका निष्काम सेवक हूँ और आप येरे निरपेक्ष स्वामी
हैं। जैसे राजा और उसके सेवकोका प्रयोजनवश
स्वामी-सेवकका सम्बन्ध रहता है, वैसा तो मेरा और
आपका सम्बन्ध है नहीं॥६॥ मेरे बरदानिशिरोभणि
स्वामी ! यदि आप मुझे मुँहमाँगा वर देना हौ चाहते हैं तो
यह वर दीजिये कि मैरे हृदयमें कभी किसी कामनाका
योज ही न हो ॥ ७ ॥ हृदयमें किसी भी कामनाके
उदय सु तन आग देह शर्म धैर्य, बुद्धि
लज्जा, श्री, तेज, स्मृति और सत्य--ये सब-के-सब नष्ट
हो जाते हैं॥ ८ ॥ कमलनयन ! जिस समय मनुष्य अपने
मनमें रहनेवाली कामनाओंका परित्याग कर देता है, उसी
समय वह भगवत्स्वरूपकों प्राप्त कर लेता है॥९॥
भगवन् ! आपको नमस्कार है। आप सबके हृदयमें
विराजमान, उदारशिरोमणि स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं।
अदभुत नृसिंहरूपधारी श्रीहरिके चरणों मैं बार-बार
प्रणाम करता हूँ॥ १० ॥
श्ीनृसिंहधरगवानते कहा--प्रहाद ! तुम्हारे-जैसे
मेरे एकान्तप्रमी इस लोक अथवा परलोककी किसी भी
वस्तुके लिये कभी कोई कामना नहीं करते। फिर भी
अधिक नहीं, केवल एक मन्वन्तरतक मेरी प्रसन्नताके
लिये तुम इस लोकमें दैत्याधिपतियकि समस्त भोग
स्वीकार कर लो ॥ ११ ॥ समस्त प्राणियोंके हृदयमें यज्ञोंके
भोक्ता ईश्वस्के रूपमें मैं ही विराजमान हूँ। तुम अपने
हृदये मुझे देखते रहना और मेरी लीला-कथाएँ, जो तुम्हे
अत्यन्तप्रिय हैं, सुनते रहना। समस्त कमक द्वारा मेरी ही
आराधना करना और इस प्रकार अपने प्रारब्ध-कर्मका
क्षय कर देना ॥ १२ ॥ भोगके द्वारा पुण्यकमेकि फल और
निष्काम पुण्यकर्मोकि द्वारा पापका नाश करते हुए समयपर
शरीरका त्याग करके समस्त बन्धनोंसे मुक्त होकर तुम मेरे
पास आ जाओगे। देवलोकमें भी लोग तुम्हारी विशुद्ध
कीर्तिका गान करेंगे ॥ १३ ॥ तुम्हारे द्वारा की हुई मेरी इस
स्तृतिका जो मनुष्य कीर्तन करेगा और साथ ही मेरा और
तुम्हारा स्मरण भी करेगा, वह समयपर कमेकि बन्धनसे
मुक्त हों जायगा॥ १४ ॥
प्रह्मादजीने कहा--महेश्वर ! आप वर देनेबालॉके
स्वामी हैं। आपसे मैं एक वर और माँगता हूँ। मैरे पिताने
आपके ईश्वरीय तेजको ओर सर्वशक्तिमान् चराचरगुरु स्वयं