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हो तो उसे वह सम्पूर्ण वर प्राप्त हो जाता है।

अन्यथा अवश्य ही उसे मोक्षकी प्राप्ति होती है।

शान्तस्वरूप जगत्पालक श्रोविष्णुकी सेवा करके

सचमुच ही मनुष्य समस्त तप, सम्पूर्ण धर्म तथा

परम उत्तम यश एवं कीर्तिकों प्राप्त कर लेता

है। जो मुद्‌ सर्वेश्वर विष्णुका सेवन करके उसके

हा र समझकर अत्यन्त तुच्छ गिनने लगता

है। सोते-जागते हर समय श्रीकृष्णकी सेवा ही

चाहता है। उनकी दासताके सिवा दूसरा कोई पद

नहीं मानता। श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंमें निरन्तर

एवं अविचल भक्ति पाकर वह पूर्णकाम हो जाता

है। श्रीकृष्णका भक्त उन परिपूर्णतम ब्रह्मका सेवन

बदलेमें कोई वर लेना चाहता है, उसे विधाताने | करके सदा सुस्थिर रहता है। वह अपने कुलकी

ठग लिया और विष्णुकी मायाने मोहमें डाल | करोड़ों, नानाके कुलकी सैकड़ों तथा श्वशुरके

दिया। नारायणकी माया सब कुछ करनेमें समर्थ, | कुलकी सैकड़ों पूर्व पीढ़ियोंका लीलापूर्वक उद्धार

सबकी कारणभूता और परमेश्वरी है। वह जिसपर | करके दास, दासी, माता और पत्नीका तथा पुत्रके

कृपा करती है, उसे विष्णु-मन्त्र देती है। |बादकी भी सैकड़ों पीढ़ियोंका उद्धार कर देता

जो धर्मात्मा मनुष्य धर्मका भजन करता है, | है और स्वयं निश्चय ही गोलोकमें जाता है। मनुष्य

बह निश्चय ही सम्पूर्ण धर्मका फल पाता है और | तभीतक कामासक्त होकर गर्भमें निवास करता

इहलोकमें सुख भोगकर परलोकमें विष्णुके परमपदको | है, तभीतक यमयातना भोगता है ओर गृहस्य

प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य जिस देवताकी | पुरुष तभीतक भोगोंकी इच्छा रखता है, जबतक

भक्तिभावसे आराधना करता है, वह पहले उसीको | कि श्रीकृष्णका सेबन नहीं करता। यमराज उस

पाता है, फिर समयानुसार उस देवताके साथ ही | भक्तके कर्मसम्बन्धी लेखको तत्काल भयके मारे

बह उत्तम बिष्णुधाममें चला जाता है। दूर कर देता है। ब्रह्माजी पहलेसे ही उसके

भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रकृतिसे परे तथा तीनों | स्वागतके लिये मधुपर्क आदि तैयार करके रखते

गुणोंसे अतीत--निर्गुण हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव | हैं और सोचते हैं कि अहो! वह मेरे लोकको

आदिके सेव्य, उनके आदिकारण, परात्पर अविनाशी | लाँचकर इसी मार्गसे यात्रा करेगा। कोटिशत

परब्रह्म एवं सनातन भगवान्‌ हैं। साकार, निराकार, | कल्पोंमें भी उसका वहाँसे निष्कासन नहीं होगा।

ज्योति :स्वरूप, स्वेच्छामय, सर्वव्यापी, सर्वाधार, | जैसे सर्प गरुड़को देखते ही भाग जाते हैं, उसी

सर्वेश्वर, परमानन्दमय, ईश्वर, निर्लिप्त तथा साक्षिरूप | तरह करोड़ों जन्मोके किये हुए पाप भी श्रीकृष्ण-

हैं। वे भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही दिव्य | भक्तसे भयभीत हो उसे छोड़कर पलायन कर

विग्रह धारण करते हैं। जो उनकी आराधना करता | जाते हैं। श्रीकृष्ण-भक्त मानव-शरीरको छोड़नेके

है, वह सचमुच ही जीवन्मुक्त है। वह बुद्धिमान्‌ | बाद निर्भय हो गोलोकमें जाता है। वहाँ जानेपर

पुरुष कोई वर नहीं ग्रहण करता। सालोक्य आदि | दिव्य शरीर धारण करके सदा श्रीकृष्णकी सेवा

चारों प्रकारको मुक्तियोंकों भी वह तुच्छ समझने | करता है। श्रीकृष्ण जबतक गोलोकमें निवास

लगता है। ब्रह्मत्व, अमरत्व और मोक्ष भी उसके | करते हैं, तबतक भक्त पुरुष निरन्तर वहाँ उनकी

लिये तुच्छ-सा हो जाता है। ऐश्वर्यको वह मिट्टीके | सेबामें रहता है। श्रीकृष्णका दास ब्रह्माकी नश्वर

ढेलेके समान नश्वर मानता है। इन्द्रत्व, मनुत्व और | आयुको एक निमेषभरका मानता है।

चिरए्जीवीत्वको भी पानीके बुलबुलेके समान (अध्याय १४)

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