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४० * संक्षिप्त ब्रह्मपुराण *

| केसराचलके रूपमे स्थित

३।१ य गव दे जग | आदि दक्ष केसर-पर्वत हैं। शिखिवास,

है। इसी प्रकार उत्तर दक्षिणभागके ब

रम्यकवर्ष, उससे दक्षिण हिरण्मयवर्ष तथा उससे | ज कि यनव ओर जि जा

स सि ५७४४“ ४० १५५ | हंस, नाग तथा कालञ्जर आदि अन्य पर्वत

व 040०#+ ४ च नौ | उत्तरभागके केसराचल हैं। मेरुगिरिके ऊपर

न या है डाक | चौदह हजार योजनके विस्तारवाली एक विशाल

००००५ अ की वर | पुरी है, जो ब्रह्माजीकौ सभा कहलाती है। उसमें

तथा उत्तर का ९ अं (0 सब ओर आठों दिशाओं और विदिशाओमें इन्द्र

मु न का और | आदि लोकपालोंके विख्यात नगर है ।

प्ये कोक सौ| भगवान्‌ विष्णुके चरणोंसे निकलकर चन्द्रमण्डलको

वप का हा | आप्लाबित केवाली गज्ा ब्रह्मपुरीके चारों ओर

जज वि 0 है म गिरती हैं। वहाँ गिर्कर वे चार भागोंमें बट जाती

पक पुन भ्‌ । हैं। उस समय उनके क्रमश:--सीता, अलकनन्दा,

पिमे पी और भद्रा नाम होते हैं। पूर्व ओर सीता एक

उसके फल विशाल गजराजके बराबर होते है । | च ८१५०५869

वे गन्धमादनपर्वतपर सब ओर गिरकर फूट जाते | प्त श स सु सु्थाम

व स चर बाद दो | अलकनन्दा दक्षिण-पथसे भारतवर्षमें आतो और

है। वहाँके निवासी उ । । र

उसके पीनसे लोगोकि शरीर ओर मन स्वस्थ | बहाँ स पि

रहते है । उन्हें खेद नहीं होता। उनके शरीरमे | जतौ ह न सीख

र पा जण जाती है । इसी प्रकार भद्रा उत्तरगिरि तथा उत्तरकुरुको

क्षीण नहीं होती । जम्बूके रसको पाकर उस | क

न हअ गन्धमादनपर्वत नीलगिरिसे लेकर निषधपर्वततक

काम जाती है। के मी का और नव फैले हुए हैं। उन दोनोंके मध्यभागमें मेरु कर्णिकाके

काम आती है। मे भद्राश्व क

पः

है । मेरुके पूर्वमे चैत्ररथ, दक्षिणे ५ १ क कमल धज

पश्चिममें वैभ्राज तथा उत्तरम नन्दनवनं है । इसी र देवकूट यो

प्रकार भिन्न-भिन्न दिशाओंमें अरुणोद, महाभद्र, | ति र्वक्‌ ध

व मो णः प्‌ | और जारुधि- ये उत्तर-दिशाके वर्षपर्वत हैं, जो

म गये हैं।

कना कुररी, माल्यवान्‌ तथा वैकङ्क आदि | पूर्वसे पश्चिमी ओर समुद्रके भीतरतक चले

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