* श्रीवामनपुराण *
[ अध्याय ८
कीरावण उक्र
एवं भविष्यत्यसुर वरमन्यं यमिच्छसि ।
तं वृणीष्व महाबाहो प्रदास्याप्यविचारयन्॥ ६२
प्रह्ाद उ्वाच
सर्वमेव मया लब्धं त्वत्प्रसादादधोक्षज।
त्वत्पादपङ्कनाभ्यां हि ख्यातिरस्तु सदा मम ॥ ६३
काएवण उयाच
'एवमस्त्वपरं चास्तु नित्यमेवाक्षयोऽव्ययः।
अजरश्चापरश्चापि मत्प्रसादाद् भविष्यसि॥ ६४
गच्छस्व दैत्यशार्दूल स्वमावासं क्रियारतः।
न कर्मबन्धो भवतो मच्चित्तस्य भविष्यति ॥ ६५
प्रशासयदमून् दैत्यान् राज्यं पालव शाश्चतम्।
स्वजातिसदृशं दैत्य कुरु धर्ममनुत्तमम् ॥ ६६
प्रलस्त्व उकाच
इत्युक्तो लोकनाथेन प्रहवादो देवमब्रवीत्।
कथं राज्यं समादास्ये परित्यक्तं जगद्गुरो ॥ ६७
तपुवाचच जगत्स्वामी गच्छ त्वं निजमाश्रयम्।
हितोपदेष्टा दैत्यानां दानवानां तथा भव॥ ६८
नारायणेनैवमुक्तः स तदा दैत्यनायकः।
प्रणिपत्य विभुं तुष्टो जगाम नगरं निजम्॥ ६९
दृष्टः सभाजितश्चापि दानवैरन्धकेन च।
निमन्त्रितश्ष राज्याय न प्रत्यैच्छत्स नारद ॥ ७०
राज्यं परित्यज्य महाऽसुरेन्रो
नियोजयन् सत्पथि दानवेनद्रान्।
ध्यायन् स्मरन् केशवमप्रमेयं
तस्थौ तदा योगविशुद्धदेहः॥ ७९
एवं पुरा नारद दानवेन्द्रो
नारायणेनोत्तमपूरूषेण ।
पराजितश्चापि विमुच्य राज्यं
नारायणने कहा ~ प्रहाद! एेसा ही होगा। पर हे
पहाबाहो ! तुम एक और अन्य वर भी, जो तुम चाहो,
मागो । मैं चिना विचारे ही-बिना देय -अदेयका विचार
किये हो-यह भी तुम्हें दूंगा ॥६२॥
प्रहादने कहा-- अधोक्षज! आपके अनुग्रहसे
मुझे सब कुछ प्राप्त हों गया। आपके चरणकमलोंसे मैं
सदा लगा रहँ और ऐसी हौ मेरी प्रसिद्धि भी हो अर्थात्
मैं आपके भक्तके रूपमे ही चर्चित होऊँ॥६३॥
नारावणने कहा-- ऐसा ही होगा। इसके अतिरिक्त
मेरे प्रसादसे तुम अक्षय, अधिनाशी, अजर और अमर
होगे। दैत्यश्रेष् अब तुम अपने घर जाओ और सदा
(धर्म) कार्यमें रत रहो। मुझमें मन लगाये रखनेसे
तुम्हें कर्मबन्धन नहीं होगा। इन दैत्योंपर शासन करते
हुए तुम शाश्वत (सदा बने रहनेवाले) राज्यका पालन
करो। दैत्य! अपनी जातिके अनुकूल श्रेष्ठ धर्मोका
अनुष्ठान करो ॥ ६४--६६॥
पुलस्त्यजी बोले-- लोकनाथके ऐसा कहनेपर
प्रहादने भगवान्से कहा - जगद्गुरो ! अब मैं छोड़े हुए
राज्यको कैसे ग्रहण करूँ? इसपर भगवानूने उनसे
कहा --तुम अपने घर जाओ तथा दैत्यों एवं दानर्वोको
कल्याणकारी बाताँका उपदेश करो। नारायणके ऐसा
कहनेपर वे दैत्यनायक (प्रह्माद) परमेश्वरको प्रणाम कर
प्रसन्ततापूर्वक अपने नगर निवास-स्थानको चले गये।
नारदजी! अन्धक तथा दान्वोने प्रह्मदको देखा एवं
उनका सम्मान किया और उन्हें राज्य स्वीकार करनेके
लिये अनुरोधित किया; किंतु उन्होंने राज्य स्वीकार नहीं
किया। दैत्येश्वर प्रह्मद राज्यको छोड़ अपने उपदेशोंसे
दानव-श्रेष्ठोकों शुभ मार्गमे नियोजित तथा भगवान्
नारायणका ध्यान और स्मरण करते हुए योगके द्वारा शुद्ध
शरीर होकर विराजित हुए। नारदजी ! इस प्रकार पहले
पुरुषोत्तम नारायणद्वारा पराजित दानवेन्द्र प्रह्मद राज्य
छोड़कर भगवान् नारायणके ध्यानमें लोन होकर शान्त
तस्थौ मनो धातरि सनिवेश्य ॥ ७२ | एवं सुस्थिर हुए थे॥६७--७२॥
॥ इ प्रकार श्रीवामनपुराणमें आठवाँ अध्याय समाप्त हआ ॥८॥
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