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आ० १३ )

+ षष्ठ स्कख +

३६९

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तेरहवाँ अध्याय

इन्द्रपर ब्रह्महत्याका आक्रमण

श्रीशुकदेवजी कहते हैं--महादानी परीक्षित्‌ !

वृत्नासुस्की मृत्युसे इन्द्रके अतिरिक्त तीनों लोक और

लोकपाल तत्क्षण परम प्रसत्र हो गये । उनका भय, उनकी

चिन्ता जाती रही ॥ १ ॥ युद्ध समाप्त होनेपर देवता, ऋषि,

पितर, भृत, दैत्य ओर देवताओंके अनुचर गन्धर्व आदि

इन्द्रसे त्रिना पूछे ही अपने-अपने लोककों लौट गये ।

इसके पश्चात्‌ ब्रह्मा, शड्रूर और इन्द्र॒ आदि भी चले

गये॥ २॥

राजा परीक्षितने पूछा--भगवन्‌ ! मैं देवराज

इन्द्रकी अप्रसन्नताका कारण सुनना चाहता हूँ। जब

वृत्रासुरके वधसे सभी देवता सुखी हुए, तब इन्द्रको दुःख

होनेका क्या कारण था 7॥ ३॥

श्रीशुकदेवजीने कहा--परीक्षित्‌ ! जब वृत्रासुरके

पराक्रमसे सभी देवता ओर ऋषि-महर्षि अत्यन्त भयभीत

हो गये, तब उन लोगेन उसके वधके लिये इन्द्रसे प्रार्थना

की; परन्तु वे ब्रह्महत्याके भयसे उसे मारना नहीं

चाहते थे ॥ ४ ॥

देवराज इन्द्रने उन लोगोंसे कहा--देवताओ और

ऋषियो ! मुझे विश्वरूपके वधसे जो ब्रह्महत्या लगौ धी,

उसे तो स्त्री, पृथ्वी, जल और वृक्षोनि कृपा करके बि

लिया । अब यदि मैं वृत्रका वध करूँ तो उसकी हत्यासे मेरा

छुटकारा कैसे होगा ? ॥ ५॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं--देवराज इन्द्रकी बात

सुनकर ऋषियोंने उनसे कहा--'देवराज ! तुम्हारा

कल्याण हो, तुम तनिक भी भय मत करो । क्योकि हम

अश्वमेध यज्ञ कराकर तुम्हें सारे पापोंसे मुक्त कर

देंगे॥६॥ अश्वमेघ यज्ञके द्वार सवके अन्तर्यामी

सर्वशक्तिमान्‌ परमात्मा नागयणदेवकी आराधना करके

तुम सम्पूर्णं जगत्ता वध करनेके पापसे भी मुक्त हो

सकोगे, फिर वृत्रासुरके वधकी तो बात ही क्था है ॥ ७॥

देवराज ! भगवानके नाम-कीर्तनमात्रसे ही ब्राह्मण, पिता,

गौ, माता, आचार्य आदिकी हत्या करनेवाले महापापी,

कुत्तेका मांस खानेवाले चाप्डाल और कसाई भो शुद्ध हो

जाते रै ॥ ८ ॥ हमलोग “अश्वमेध' नामक महायज्ञका

अनुष्ठान करेगे । उसके द्वारा श्रद्धापूर्वकं भगवानूकी

आराधना करके तुम ब्रह्मापर्यन्त समस्त चराचर जगत्‌की

हत्याके भी पापसे लिप्त नहीं होगे। फिर इस दुष्टको दण्ड

देनेके पापसे छूटनेकी तो बात हो क्या है ?' ॥ ९॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं--परीक्षित्‌! इस प्रकार

ब्राह्मणोंसे प्रेरणा प्राप्त करके देवराज इन्र बृत्रासुस्का वध

किया था। अब उसके मारे जानेपर ब्रह्महत्या इन्द्रके पास

आयी ॥ १० ॥ उसके कारण इन्द्रको बड़ा क्लेश, बड़ी

जलन सहनी पड़ी | उन्हें एक क्षणके लिये भी चैन नहीं

पड़ता था। सच है, जब किसी सङ्कोची सजनपर कल

लग जाता है, त उसके धैर्य आदि गुण भी उसे सुखी

नहीं कर पाते ॥ ११॥ देवराज इन्धने देखा कि ब्रह्महत्या

साक्षात्‌ चाण्डालीके समान उनके पीछे-पीछे दौड़ी आ रही

है। बुढ़ापेके कारण उसके सारे अङ्ग कोप रहे हैं और

क्षयरोग उसे सता रहा है। उसके सारे वख खनसे

लथपथ हो रहे है॥ १२॥ वह अपने सफेद-सफेद

बालको बिखेंरे ' ठहर जा! ठहर जा !!' इस प्रकार

चिल्लाती आ रही है। उसके श्वासके साथ मछलीकी-सौ

दुर्गन्ध आ रही है, जिसके कारण मार्ग भी दूषित होता जा

रहा है॥१३॥ राजन्‌ ! देवराज इन्द्र उसके भयसे

दिशाओं और आकाशमें भागते फिरे। अन्तमे कहीं भी

शरण न मिलनेके कारण उन्होंने पूर्व और उत्तरके कोनेमें

स्थित मानसयेवरमे शौघ्रताये प्रवेश किया॥ १४ ॥

देवराज इन्द्र मानसरोवरके कमलनालके तन्तुओपिं एक

हजार वर्षोतक छिपकर निवास करते रहे और सोचते रहे

कि ब्रह्महत्यासे मेरा छुटकारा कैसे होगा। इतने दिनतक

उन्हें भोज़नके लिये किसी प्रकारकी सामग्री न मिल

सकी। क्‍योंकि वे अग्निदेवताके मुखसे भोजन करते हैं

और अग्निदेवता जलके भीतर कमलतन्तुओमें जा नहीं

सकते थे ॥ १५॥ जबतक देवराज इन्र कमलतन्तुओमिं

रहे, तबतक अपनी विद्या, तपस्या ओर योगवलके

प्रभावसे राजा नहुष स्वर्गका शासन करते रहे । परन्तु जब

उन्होंने सम्पत्ति और ऐश्वर्यके मदसे अंधे होकर इन्द्रपत्नी

शचीके साथ अनाचार करना चाहा, तय शचौने उनसे

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