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२ ऋग्वेद संहिता भाग - २

२४४१. बब्राजा सीमनदतीरदब्धा दिवो यह्वीरवसाना अनग्नाः ।

सना अत्र युवतयः सयोनीरेकं गर्भं दधिरे सप्त वाणीः ॥६ ॥

स्वयं नष्ट न होने वाले तथा (जल को) हानि न पहुँचाने वाले ये अग्निदेव सव ओर विचरण करते है । वसौ

से आच्छादित न होने पर भी नग्न न रहने बाली सनातन काल से तरुण, एक ही दिव्य स्रोत से उत्यत्नं प्रवहमान

जलधाराएँ एक ही गर्भ (अग्नि) को धारण करती हैं ॥६ ॥

२४४२. स्तीर्णा अस्य संहतो विश्वरूपा धृतस्य योनौ सरवथे मधूनाम्‌।

अस्थुरत्र धेनवः पिन्वमाना मही दस्मस्य मातरा समीची ।॥७ ॥

इस (अग्नि) की माना रूपों वाली संगठित किरणे जब फैलती हैं, तव पोषक रस के उत्पत्ति स्थान से मष

वर्षा होती है । सबको तृप्ति देने वाली किरणे यहाँ विद्यमान रहती है । इस अग्नि के माता-पिता पृथ्वी

अंतरिक्ष हैं ॥७ ॥

२४४३. बभ्राणः सूनो सहसो व्यद्यौदधानः शुक्रा रभसा बपूंषि।

श्रोतन्ति धारा मधुनो धृतस्य वृषा यत्र वावृधे काव्येन ॥८ ॥

है बल के पुत्र अग्निदेव ! सबके द्वारा धारण किये जाने योग्य आप उज्ज्वल और वेगवान्‌ किरणों द्वारा

प्रकाशमान हों । जिस समय स्तोतागण स्तोत्रों से आपको प्रवर्धित करते हैं, उस समय वे मधुर घृत धारायें सिंचित

करती हैं अथवा पुष्टिकारक जल धाराएँ बरसती हैं ॥८ ॥

२४४४. पितुश्चिदूधर्जनुषा विवेद व्यस्य धारा असृजद्ठि धेनाः ।

गुहा चरन्तं सखिभिः शिवेधिर्दिवो यद्वीभिरन गुहा बभूव ॥९॥

अग्निदेव ने जन्म से हौ अपने पिता (अन्तरिक्ष) के निचले स्तर जल प्रदेश को जान लिया । अन्तरिक्ष की

जलधार ने बिजली को उत्पन्न किया । अग्निदेव अपने कल्याणकः मित्रों और द्युलोक की जलराशि के साथ गुह्य

रूप मे विचरते है । (गुहा रूप में स्थित) उस अग्नि को कोई भी प्राप्त नहीं कर सका ॥९ ॥

२४४५. पितुश्च गर्भं जनितुश्च बभ्र पूर्वीरिको अधयत्पीष्यानाः ।

वृष्णे सपत्नी शुचये सबन्धू उभे अस्मै मनुष्ये नि पाहि ॥९० ॥

ये अग्निदेव पिता (आकाश) और माता (पृध्वी) के गर्भ को पुष्ट करते रँ । एक मात्र अग्निदेव अभिवर्द्धित

ओषधि का भक्षण करते है । अभीष्ट वर्षा करने वाले ये अग्निदेव पतनी सहित याजक के पवित्रकर्त्ता बन्धु सदृश

है । हे अग्निदेव ! द्यावा-पृथिवी में हम यजमानो को रदित करें ॥१० ॥

२४४६. उरौ महां अनिबाधे ववर्धापो अनि यशसः सं हि पूर्वी: ।

ऋतस्य योनावशयदमूना जामीनामग्निरपसि स्वसूणाम्‌ ॥९९॥

महान्‌ अग्निदेव अवाध ओर विस्तीर्ण पृथ्वी में प्रवर्धित होते हैं । वहाँ बहुत अन्नवर्द्ध७ जल समूह अग्नि

को संवर्धित करते हैं । जल के उत्पत्ति स्थान में स्थित अग्निदेव परस्पर बहिन रूप नदियों के जल में शान्तिपूर्वक

शयन करते हैं ॥११ ॥ |

२४४७. अक्रो न बधि; समिथे महीनां दिदृक्षेयः सूनवे भान्ऋजीकः।

उदुस्रिया जनिता यो जजानापां गभ नृतमो यद्वो अग्नि: ॥१२॥

* ये अग्निदेव सबके पिता रूप जल के गर्भ में गुद्दा-स्थित, मनुष्यों के हितकारी, संप्राप मे युद्ध कुशल, अपनी

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