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* धर्मकी महिमा एवं अधर्पकी गतिका निरूपण तथा अप्रदानका माहात्प्य * ३५९

शरीर उस अधर्मसे दूर होता जाता है। यदि ! भिक्षासे अन्न ले आकर यदि किसी स्वाध्यायशील

धर्मवादी ब्राह्मणोंके सामने अपना पाप कह दिया | ब्राह्मणको दान कर दे तो वह संसारमे सुख और

जाय तो वह उस पापजनित अपराधसे शीघ्र मुक्त समृद्धिका भागौ होता है। जो क्षत्रिय ब्राह्मणके

हो जाता है। मनुष्य जैसे-जैसे अपने अधर्मकी | धनको हानि न पहुँचाकर न्यायतः प्रजाक्रा पालन

याते वारंबार प्रकट करता है, वैसे-ही-वैसे वह ' करते हुए अन्नका उपार्जन करता है और उसे

एकाग्रचित्त होकर अधर्मको छोडता जाता है ।* | एकाग्रचित्त होकर श्रोत्रिय ब्राह्मणोँको दान देता है,

जैसे साँप केचुल छोड़ता है, उसी प्रकार वह , बह धर्मात्मा है ओर उस पुण्यक्रे जलसे अपने

पहलेके अनुभव किये हुए पापोंका त्याग करता | पापपङ्कको धो डालता है। अपने द्वारा उपार्जित

है। एकाग्रचित्त होकर ब्राह्मणको नाना प्रकारके , खेतीके अन्नमेंसे छठा भाग राजाको देनेके बाद

दान दे। जो मनको ध्यानमें लगाता है, वह उत्तम | जो शेष शुद्ध भाग बच जाता है, वह अन्न यदि

गतिको प्राप्त करता है। चैश्य ब्राह्मणको दान करे तो वह सब पापॉसे मुक्त

ग्राह्यणो ! अब मैं दानका फल बतलाता हूं! | हो जाता है। जो शूद्र प्राणोंको संशयमें डालकर

सब दानोंमें अन्नदानकों श्रेष्ट बतलाया गया है।! और नाना प्रकारकी कठिनाइयोंकों सहकर भी

धर्मकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यको चाहिये कि वह | अपने द्वारा उपार्जित शुद्ध अन्नको ब्राह्मणोंके निमित

सरलतापूर्वक सब प्रकारके अन्नोंका दान करे।| दान करता है, वह भी पापोंसे छुटकारा पा जाता

अन्न ही मनुष्योंका जोवन है। उसोसे जीव- | है। जो कोई भी मनुष्य श्रेष्ठ बेदवेत्ता ब्राह्मणोंको

जन्तुओंकी उत्पत्ति होती है। अन्नमें ही सम्पूर्ण | हर्षपूर्वक न्यायोपार्जित अन्नका दान करता है,

लोक प्रतिष्ठित हैं, अत: अन्नको श्रेष्ठ बताया जाता , उसका पाप छूट जाता है। संसारमें अन्न बलकी

है। देवता, ऋषि, पितर और मनुष्य अन्नकी ही | वृद्धि करनेवाला है। उसका दान करनेसे मनुष्य

प्रशंसा करते हैं; क्योंकि अन्नदानसे मनुष्य स्वर्गलोकको , बलबान्‌ बनता है। सत्पुरुषोंके मार्गपर चलनेसे सब

प्रास होता है। स्वाध्यायशील ब्राह्मणोंके लिये | पाप दूर हो जाते हैं। दानवेत्ता पुरुषोंने जो मार्ग

न्यायोपार्जित उत्तम अन्नका प्रसन्नचित्तसे दान करना बताया है और जिसपर मनीषी पुरुष चलते हैं, वही

चाहिये। जिसके प्रसन्नचित्तसे दिये हुए अनिको | अन्नदाताओंका भी मार्ग है। उन्हींसे सनातन धर्म ई ।

दस ब्राह्मण भोजन कर लेते हैं, वह कभी पशु- ' मनुष्यको सभी अवस्थाओंमें न्यायोपार्जित अन्नका

पक्षी आदिकी योनिमें नहों पड़ता। सदा पापॉमें | दान करना चाहिये। क्योंकि अन्न सर्वोत्तम गति है।

संलग्न रहनेबाला मनुष्य भी यदि दस हजार | अन्नदानसे मनुष्य परमगतिको प्रास होता है। इस

ब्राह्मणको भोजन करा दे तो वह अधर्मसे मुक्त | लोके उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण होती हैं और

हो जाता है। बेदोंका अध्ययन करनेवाला ब्राह्मण | मृत्युके बाद भी वह सुखका भागी होता है

मोहादधर्म॑ चः कृत्वा पुनः समनुतप्यते। मनःसमाधिसंयुक्तो न स सेवेत दुष्कृतम्‌ ॥

यथा यथा मनस्तस्य दुष्कृतं कर्म गर्हते तथा तथा शरीरं तु तेनाधर्मेण मुच्यते॥

यदि विग्राः कथयते विप्राणां धर्मवादिनाम्‌। ठतो5धर्मकृतात्क्षिप्रमपराधात्प्रमुच्यते ॥

यथा यथा नरः सम्यगधर्ममनुभाषते। समाहितेन मनसा विमुझति तथा तथा॥

(२१८॥ ४--७)

¶ अन्नस्य हि प्रदानेन उरो वाति परां गतिम्‌ 8 सर्वकामसमायुक्त: प्रेत्य चाप्वश्नुते सुखम्‌ ।

(२१८। २६-२७)

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