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उत्तरपर्व]

* धर्पराजका समाराधन-ब्रत «

३५९

व्यायामादि न करें। ओषधियोंद्भार गर्भकी रक्षा करती रहे,

हृदयम मात्सर्य-भाव न रखे । जो गर्भिणी स्त्री विशेषरूपसे इन

नियमोंका पालन करती है, उसका उस गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न

होता है, यह शीलवान्‌ एवं दीर्घायु होता है। इन नियमॉका

पालन न करनेपर निस्संदेह गर्भपातकी आशङ्का बनी रहती है।

प्रिये ! इसलिये तुम इन नियमोंका पालन करके अपने गर्भकी

रक्षाका प्रयत्न करो । तुम्हारा कल्याण हो, अब मैं जा रहा हूँ।'

दितिके द्वारा पतिकी आज्ञा स्वोकार कर लेनेपर महर्षि कश्यप

वहीं अन्तर्धान हो गये। तब दिति नियमोंका पालन करती हुई

समय व्यतीत करने लगी। काला्तरमें दितिको उनचास पुत्र

(मरुद्रण) प्राप्त हुए।

राजन्‌ ! इस प्रकारसे जो भी नारी इस मदनद्वादशी-

ब्रतका अनुष्ठान करेगी, वह पुत्र प्राप्त कर पतिके सुखको प्राप्त

करेगी। (अध्याय ८६)

~व

अबाधक-त्रत एवं दौर्भाग्य-दौर्गन्‍ध्यनाशक व्रतका माहात्म्य

राजा युधिष्ठिरे पृषछा-- भगवन्‌ ! जनदून्य घोर

वनम, समुद्रतरणमें, संग्राममें, चोर आदिके भयमे व्याकुल

मनुष्य किस देवताका स्मरण करे, जिससे उस संकटके समय

उसकी रक्षा हो सके, यह आप बताये ।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा - महाराज ! सर्वमङ्गला

भगवती श्रीदुगदिवीकः स्मरण करनेपर पुरुष कभी भी दुःख

ओर भयको प्राप्त नहीं होता। भारत ! जब मैं और बलदेवजी

अपने गुरु संदीपनि मुनिके यहाँ सब विद्या पढ़ चुके तो उस

समय हमने गुरुदक्षिणाके लिये गुरुजीसे प्रार्था की। तब

गुरुजीने हमारा दिव्य प्रभाव जानकर यही कहा-- “प्रभो ! मेरा

पुत्र प्रभासक्षेत्रमें गया था, वहाँ उसे समुद्रमें किसी प्राणीने मार

दिया, उसी पुत्रको गुरुदक्षिणाके रूपये मुझे प्राप्त कराओ ।' तब

हम यमलोकमें गये और वहासि गुरुपुत्रको ठेकर गुरुजीके

समीप आये और गुरुदक्षिणाके रूपमे उनका पुत्र उन्हें समर्पित

कर दिया। तदनन्तर गुरुको प्रणापकर जब हम चलने लगे,

तब गुरुजीने कहा--'पुत्रों ! इस स्थानें तुम अपने चरणोंका

चिह्न बना दो', हमने भी गुरुकी आज्ञाके अनुसार वैसा ही

किया, फिर हम वापस घर आ गये । उसी दिनसे बलरामजीके

दक्षिण पादका, मध्यमें सर्वमङ्गरखका और मेरे वाम चरण-

चिहका पुत्र-प्राप्तिके कामनासे अथवा अपनी इच्छाओंकी

पूर्तिक लिये सभी वहाँ पूजन करते हैं। प्रत्येक मासको शुक्र

पक्षकी त्रयोदशीको एकभुक्त, नक्तत्रत अथवा उपवास रहकर

मृत्तिका अथवा सुवर्णकी इनकी प्रतिमा बना करके गन्ध, पुष्प,

धूप, दीप, नैवेद्य, मधु आदिसे जो स्त्री अथवा पुरुष पूजन

करता है, वह सम्पूर्ण पामे मुक्त हो स्वर्गमे निवास करता है ।

राजा युधिष्ठिरे पुनः पूछा--यदुशार्दूल ! ऐसा कौन

त्रत दै, जिसके आचरणसे दारीरका दुर्गन्धि नष्ट हो जाय और

दौर्भाग्य भी दूर हो जाय।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा--महाराज ! इसी प्रश्नको

नी विष्णुभक्तिने जातृकर्णयमुनिसे पृछ था, तब उन्होंने उनसे

कहा--देवि ! ज्येष्ठ मासके शुक्त पक्षकी त्रयोदज्ञीमें पवित्र

जल्मशयमें खनन करे और शुद्ध स्थानमे उत्पन्न श्वेत आक, रक्त

करवीर तथा निम्ब वुक्षकी पूजा करें। ये तीनों वृक्ष भगवान्‌

सूर्यको अत्यन्त प्रिय हैं। प्रातःकाल सूर्योदय हो जानेपर

भगवान्‌ सूर्यका दर्शनकर उनका अपने हृदयमें ध्यान करे।

अनन्तर पुष्प, नैवेद्य, धूप आदि उपचारोंसे उन वृक्षोंकी पूजा

करे और पूजनके अनन्तर उन्हें नमस्कार करें।

राजन्‌ ! इस विधिसे जो ख्री-पुरुष इस ब्रतको करते हैं,

उनके इारीरकी दुर्गन्धि तथा उनका दौर्भाग्य दोनों दूर हो जाते

हैं और ये सौभाग्यशाली हो जाते हैं। (अध्याय ८७-८८)

दि 2

धर्मराजका समाराधन-त्रत *

राजा युधिप्ठिरने पूछा-- भगवन्‌ ! ऐसा कौन-सा त्रत

है जिसके करनेसे यमराज प्रसन्न हो जायैँ और नरकका दर्शन

नहों।

कैः यह कथा स्कन्दपुतणके नामसे अनेक ग्रत-निब्सोंमें रोगत है।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा--महाराज ! एक बार जब

मैं द्वारका-स्थित समुद्रमें स्नान कर्के बाहर निकल, तब देखा

कि मुद्रलमुनि चले आ रहे हैं। उनका तेज सूर्यक समान था

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