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वस्त्र, धूप, सुगन्ध, अङ्गरग, दाँत धोनेके लिये

मझन तथा दाँतौन-इन सब वस्तुओंका सेवन

अच्छा नहीं माना गया है। प्रातःकाल जलसे मुँह

धो, कुल्ला करके, पञ्चगव्य लेकर ब्रत प्रारम्भ कर

देना चाहिये ॥५--९॥

अनेक बार जल पीने, पान खाने, दिनमें

सोने तथा मैथुन करनेसे उपवास (व्रत) दूषित

हो जाता है। क्षमा, सत्य, दया, दान, शौच,

इन्दरियसंवम, देवपूजा, अग्निहोत्र, संतोष तथा

चोरौका अभाव -ये दस नियम सामान्यतः सम्पूर्ण

ब्रतोंमें आवश्यक माने गये हैं। ब्रतमें पवित्र

ऋचाओंको जपे और अपनी शक्तिके अनुसार

हवन करे। व्रती पुरुष प्रतिदिन स्नान तथा

परिमित भोजन करे । गुरु, देवता तथा ब्राह्मणोंका

पूजन किया करे । क्षार, शहद, नमक, शराब और

मांसको त्याग दे। तिल-मूँग आदिके अतिरिक्त

धान्य भी त्याज्य हैं। धान्य (अन्न)-में उड़द,

कोदो, चीना, देवधान्य, शमीधान्य, गुड़, शितधान्य,

पय तथा मूली -ये क्षारगण माने गये हैं। त्रतमें

इनका त्याग कर देना चाहिये! धान, साठीका

चावल, म, मटर, तिल, जौ, सवां, तिन्नीका

चावल और गेहूँ आदि अन्न व्रतमें उपयोगी है ।

कुम्हड़ा, लौकी, बैंगन, पालक तया पूतिकाको

त्याग दे। चर्‌, भिक्षामें प्राप्त अन्न, सत्तूके दाने,

साग, दही, घी, दूध, साँबाँ, अगहनीका चावल,

तिन्नीका चावल, जौका हलुवा तथा मूल तण्डुल--

ये “हविष्य' माने गये हैं। इन्हें व्रते, नक्तत्रतमें

तथा अग्निहोत्रमें भी उपयोगी बताया गया

है। अथवा मांस, मदिरा आदि अपवित्र वस्तुओंको

छोड़कर सभी उत्तम वस्तुं ब्रतमें हितकर

हैं॥ १०--१७॥

'प्राजापत्यब्रत 'का अनुष्ठान करनेवाला द्विज

तीन दिन केवल प्रातःकाल और तीन दिन केवल

संध्याकालमें भोजन करे। फिर तीन दिन केवल

बिना माँगे जो कुछ मिल जाय, उसीका दिनमें

एक समय भोजन करे; उसके बाद तीन दिनोंतक

उपवास करके रहे। (इस प्रकार यह बारह

दिनोंका त्रेत है।) इसी प्रकार 'अतिकृच्छु-

व्रत'का अनुष्ठान करनेवाला द्विज पूर्ववत्‌ तीन

दिन प्रातःकाल, तीन दिन सावंकाल और तीन

दिनोंतक बिना माँगे प्राप्त हुए अन्नका एक-एक

ग्रास भोजन करे तथा अन्तिम दिनोंमें उपवास

करें। गायका मूत्र, गोबर, दूध, दहौ, घी तथा

कुशका जल-इन सबको मिलाकर प्रथम दिन

पौयै। फिर दूसरे दिन उपवास करें-यह

*सांतपनकृच्छु नामक त्रत है। उपर्युक्त द्रव्योंका

पृथक्‌ - पृथक्‌ एक-एक दिनके क्रमसे छः दिनोंतक

सेवन करके सातवें दिन उपवास करे--इस प्रकार

यह एक सप्ताहरा त्रत ' महयसातपन-कृच्छर' कहलाता

है, जो पापोंका नाश करनेवाला है। लगातार

बारह दिनोकि उपवापसे सम्पन्न होनेवाले ब्रतको

^पराक' कहते हैं। ये सब पापोंका नाश

करनेवाला है । इससे तिगुने अर्थात्‌ छत्तीस दिनोंतक

उपवास करनेपर यही त्रत *भदापराक' कहलाता

है । पूर्णिमाको पंद्रह ग्रास भोजन करके प्रतिदिने

एक-एक ग्रास घटाता रहे; अमावास्यको उपवास

करें तथा प्रतिपदाको एक ग्रास भोजन आरम्भ

करके नित्य एक-एक ग्रास बढ़ाता रहे, इसे

"चान्द्रावणं' कहते हैं। इसके विपरीतक्रमसे भौ

यह व्रत किया जाता है । (जैसे शुक्ल प्रतिपदाको

एक ग्रास भोजन करे; फिर एक-एक ग्रास बढ़ाते

हुए पूर्णिमाको पंद्रह ग्रास भोजन करे । तत्पश्चात्‌

कृष्ण प्रतिपदासे एक-एक ग्रास घटाकर अमावास्याको

उपवास करे) ॥ १८--२३॥

कपिला गायका मूत्र एक पल, गोबर अँगूठेके

आधे हिस्सेके बराबर, दूध सात पल, दही दो

पल, घी एक पल तथा कुशका जल एक पल

एकमे पिला दे। इनका मिश्रण करते समय

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