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* श्रीमद्धागवत *

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ऋषियोका अपराध करवाकर उन शाप दिला

दिया-- जिससे वे सापि हो गये ॥ १६॥ तदनन्तर जब

सत्यके परम पोषक भगवानका ध्यान करनेसे इन्द्रके पाप

नष्टप्राय हो गये, तब ब्राह्मणोंके बुलवानेपर वे पुनः

स्वर्गलोकमें गये । कमलवनविहारिणी विष्णुपत्री लक्ष्मीजी

इन्द्रकी रक्षा कर रही थीं और पूर्वोत्तर दिशाके अधिपति

रुद्नने पापको पहले ही निस्तेज कर दिया था, जिससे वह

इन्द्रपए आक्रमण नहीं कर सका ॥ १७॥

परीक्षित्‌ ! इच्द्रके स्त्र्गमें आ जानेपर ब्रह्मर्षियोने वहाँ

आकर भगवानकी आराधनाके लिये इन्द्रको अश्वमेध

यज्ञकी दीक्षा दी, उनसे अश्वमेध यज्ञ कराया ॥ ६८ ॥ जब

वेदवादी ऋषियोंने उनसे अश्वमेध यज्ञ कराया तथा देवराज

इद्धने उस यज्ञके द्वारा सर्वदेवस्वरूप पुरुषोत्तम भगवान्‌की

आराधना की, क्न भगवान्‌की आराघनाके प्रभावसे

वत्रासुरके वधकी वह बहुत बड़ी पापराशि इस प्रकार

भस्म हो गयी, जैसे सूर्योदयसे कुहेका नाश हो जाता

है॥ १९-२०॥ जब मरीचि आदि मुनीश्चरोने उनसे

विधिपूर्वक अश्चमेध यज्ञ कराया, तब उसके द्वारा

सनातन पुरुष यज्ञपति भगवानूक़ी आयाघना करके

इन्द्र सब पापोंसे छूट गये और पूर्ववत्‌ फिर पूजनीय

हो गये ॥ २१॥

परीक्षित्‌ ! इस श्रेष्ठ आख्यानम इन्द्रकी त्रिजय,

उनकी पापोंसे मुक्ति और भगवानके प्यारे भक्त वृत्रासुस्का

वर्णन हुआ है। इसमें तीर्थोंकी भी तीर्थ बनानेवाले

भगवानके अनुग्रह आदि गुणोंका सद्डभीर्तन है । यह सारे

पापको धो वहता टै ओर भक्तिको बढ़ाता है ॥ २२॥

बुद्धिमान्‌ पुरुषोंको चाहिये कि वे इस इन्द्रसम्बन्धी

आख्यानको सदा-सर्वदा पढ़ें और सुनें। विशेषतः पवोकि

अवसरपर तो अवश्य ही इसका सेवन करें । यह धन और

यशको बढ़ाता है, सारे पापोंसे छुड़ाता है, शत्रुपर विजय

प्राप्त कराता है तथा आयु और मङ्गलकी अभिवृद्धि

करता है॥ २३ ॥

के केक केक

चोदहवाँ अध्याय

वृत्रासुरका पूर्वचरितर

राजा परीक्षिततें कहा--भगवन्‌ ! वुत्रासुरका

स्वभाव तो बड़ा रजोगुणी-तमोगुणी था। बह देवताओंकों

कष्ट पहुँचाकर पाप भी करता ही था। ऐसी स्थितिमें

भगवान्‌ नारायणके चरणोंमें उसकी सुदृढ़ भक्ति कैसे

हुई 2 ॥ १ ॥ हम देखते हैं कि प्रायः शुद्ध सत्तमय देवता

और पवित्रद्ददय ऋषि भी भगवान्‌की परम प्रेममयी अनन्य

भक्तिसे वच्धित ही रह जाते हैं। सचमुच भगवान्‌की भक्ति

बड़ी दुर्लघ है॥२॥ भगवन्‌ ! इस जगतके प्राणी

पृथ्वौके धूलिकणोके समान ही असंख्य हैं। उनमेंसे कुछ

मनुष्य आदि श्रेष्ठ जीव ही अपने कल्याणकी चेष्टा करते

है ॥ ३ ॥ ब्रह्मन्‌ ! उनमें भी संसारसे मुक्ति चाहनेवाले तो

विरले ही होते हैं और मोक्ष चाहनेवाले हजारों मुक्ति या

सिद्धि-लाभ तो कोई-सा ही कर पाता दै ॥ ४ ॥ महामुने !

करोड़ों सिद्ध एवं मुक्त पुरुषोंमें भी वैसे शान्तचित्त

महापुरुषका मिलना तो बहुत ही कठिन है, जो एकमात्र

भगवानके ही परायण हो ॥ ५॥ ऐसी अबस्थामें बह

बृत्रासुर, जो सब लोगोंकों सताता था और बड़ा पापी था,

उस भयङ्कर युद्धेके अवसरपर भगवान्‌ श्रीकृष्णमें अपनी

वृत्तियोको इस प्रकार टृढ़तासे लगा सका--इसका क्या

कारण है ? ॥ ६॥ प्रभो ! इस विषयमें हमें बहुत अधिक

सन्देह है और सुननेका बड़ा कौतृहल भी है। अहो,

वृत्रासुरका बल-पौरुष कितना महान्‌ था कि उसने

एणभूपिमे देवराज इन्द्रको भौ सन्तुष्ट कर्‌ दिया ॥ ७ ॥

सूतजी कहते हैं--शौनकादि ऋषियों ! भगवान्‌

शुकदेवजीने परम श्रद्धालु राजर्षि परीक्षित्का यह श्रेष्ठ प्रश्न

सुनकर उनका अभिनन्दन करते हुए यह बात कही ॥ ८ ॥

श्रीशुकदेक्जीने कहा--परीक्षित्‌ ! तुम साधान

होकर यह इतिहास सुनो । मैंने इसे अपने पिता व्यासजी,

देवर्षि नारद और महर्षि देवलके मुँहसे भी विधिपूर्वक

सुना है॥ ९॥ प्राचीन कालकी बात है, शूरसेन देशमें

चक्रवर्ती सम्राट्‌ महाराज चित्रकेतु राज्य करते थे। उनके

राज्यमें पृथ्वी स्वय॑ हो प्रजाकी इच्छाके अनुसार अन्न-रस