Home
← पिछला
अगला →

४०६ + संक्षिप्त ब्रह्मवैवर्तपुराण *

44.44... 4.44...

बढ़ा देती है । पक्षिराज गरुडकी चोंचकी शोभासे | पल्लव निकले रहते है । वहाँ सर्वत्र कोकिलोंकी

सम्पन्न उन्नत नासिकासे वे सब-कौ-सब विभूषित | काकली सुनायी देती है । वह वनप्रान्त कहीं तो

हैं। गजराजके युगल गण्डस्थलकौ भाँति उन्नत | केलिकदम्बोंके समूहसे कमनीय और कहाँ मन्दार,

उरोजौके भारसे वे झुकी-सी जान पड़ती हैँ । | चन्दन, चम्पा तथा अन्यान्य सुगन्धित पुष्पोंकी

उनका हृदय श्रीकृष्णविषयक अनुरागके देवता | सुगन्धसे सुवासित देखा जाता है । आम, नारंगी,

कन्दर्पके बाण-प्रहारसे जर्जर हुआ रहता है । वे कटहल, ताड, नारियल, जामुन, बेर, खजूर,

दर्पणोंमें पूर्ण चन्द्रमाके समान अपने मनोहर | सुपारी, आमडा, नीबू. केला, बेल और अनार

मुखके सौन्दर्यको देखनेके लिये उत्सुक रहती

है । श्रीराधिकाके चरणारविन्दोंकी सेवामें निरन्तर

संलग्न रहनेका सौभाग्य सुलभ हो, यही उनका

मनोरथ है । ऐसी गोपकिशोरियोसे भरा-पूरा वह

रासमण्डल श्रीराधिकाकौ आज्ञासे सुन्दरिर्योके

समुदायद्वारा रक्षित है- असंख्य सुन्दरियाँ उसकी

रक्षामें नियुक्त रहती हैँ ।

श्वेत, रक्त एवं लोहित वर्णवाले कमलोंसे

व्याप्त एवं सुशोभित लाखों क्रौड़ा-सरोवर

रासमण्डलको सब ओरसे घेरे हुए हैं, जिनमें

असंख्य भ्रमरोंके समुदाय गूँजते रहते हैं। सहस

पुष्पित उद्यान तथा फूलोंकी शय्याओंसे संयुक्त

असंख्य कुझ-कुटीर रासमण्डलकी सीमामें यत्र-

आदि मनोहर वृक्ष-समूहों तथा सुपक्व फलोंसे

लदे हुए दूसरे-दूसरे वृक्षोंद्रारा उस वृन्दावनकी

अपूर्व शोभा हो रही है। प्रियाल, शाल, पीपल,

नीम, सेमल, इमली तथा अन्य वृक्षोंके शोभाशाली

समुदाय उस वनमें सब ओर सदा भरे रहते है ।

कल्पवृक्षोंके समूह उस वनकी शोभा बढ़ाते है ।

मल्लिका (मोतिया या बेला), मालती, कुन्द,

केतकी, माधवी लता और जूही इत्यादि लताओंके

समूह वहाँ सब ओर फैले हैं। मुने ! वहाँ रत्रमय

दीपोंसे प्रकाशित तथा धूपकी गन्धसे सुवासित

असंख्य कुञ्ज-कुटीर उस बनमें शोभा पाते हैं।

उनके भीतर शृङ्गारोपयोगी द्रव्य संगृहीत हैं।

सुगन्धित वायु उन्हें सुवासित करती रहती

तत्र शोभा पा रहे हैं। उन कुटीरोंमें भोगोपयोगी | है। वहाँ चन्दनका छिड़काव हुआ है। उन

द्रव्य, कर्पुर, ताम्बूल, वस्त्र, रन्नमय प्रदीप, श्वेत |कुटीरोंक भीतर फूलोंकी शब्याएँ बिछी हैं, जो

चवर, दर्पण तथा विचित्र पुष्पमालाएँ सब ओर | पुष्पमालाओंकी जालीसे सुशोभित हैं। मधु-

सजाकर रखी गयी हैं। इन समस्त उपकरणोंसे | लोलुप मधुपोंके मधुर गुञ्जारवसे वृन्दावन मुखरित

रासमण्डलकी शोभा बहुत बढ़ गयी है। उस | रहता है। रत्रमय अलंकारोंकी शोभासे सम्पन्न

रासमण्डलको देखकर जब वे पर्वतकी सीमासे | गोपाड्रनाओंके समूहसे वह वन आवेष्टित है।

बाहर हुए तो उन्हें विलक्षण, रमणीय और सुन्दर | करोड़ों गोपियाँ श्रीराधाकी आज्ञासे उसकी रक्षा

वृन्दावनके दर्शन हुए। वृन्दावन राधा-माधवको | करती हैं। उस वनके भीतर सुन्दर-सुन्दर और

बहुत प्रिय है। वह उन्हीं दोनोंका क्रीडास्थल है।| मनोहर बत्तीस कानन हैं। वे सभी उत्तम एवं

उसमें कल्पवृक्षोंके समूह शोभा पाते हैं । विरजा- | निर्जन स्थान हैं। मुने ! वृन्दावन सुन्व, मधुर एवं

तीरके नीरसे भीगे हुए मन्द समीर उस वनके | स्वादिष्ट फलोंसे सम्पन्न तथा गोष्ठो ओर गौओंके

वृक्षोको शनैः-शनैः आन्दोलित करते रहते है । | समूहोंसे परिपूर्ण है। वहाँ सहस्रौ पुष्पोद्यान सदा

कस्तुरयुक्त पल्लवोँका स्पर्श करके चलनेवाली | खिले और सुगन्धसे भरे रहते हैं, उनमें मधुलोभी

मन्द वायुका सम्पर्क पाकर वह सारा वन | भ्रमरोकि समुदाय मधुर गुञ्जन करते फिरते है।

सुगन्धित बना रहता है । वहाँके वृक्षो नये-नये। श्रीकृष्णके तुल्य रूपवाले तथा उत्तम रत्न-

← पिछला
अगला →