+ पुराण- महिमा + ५
करते है । जो मनुष्य पुराणके ज्ञाता वक्ताकों आसनके लिये कम्बल, मृगचर्म, वस्र, सिंहासन और चौकी प्रदान करते हैं, वे
ख़र्गस्थ्रेकमें जाकर अभीष्ट भोगोंका उपभोग करनेके बाद ब्रह्मा आदिके त्मोकेमे निवास कर अन्तमें निरामय पदको प्राः होते है ।
पुराणस्य प्रयच्छन्ति ये वरासनमुत्तमम् । भोगिनो ज्ञानसम्पन्ना भवन्ति च भवे भवे॥
ये मह्मपात्तकैर्य्ता उपपातकिनश्ष ये । पुराणश्रक्णादेव ते प्रयान्ति परं पदम् ॥
एवैविथविधानेन पुराण शृणुयान्नरः । भुक्त्वा भोगान् यथाकामं विष्णुत्पेकं प्रयाति सः ॥
पुस्तकं पूजयेत् पश्चाद् वख्रालकरणादिभिः । वाचकं विश्रसंयुक्तं पुजयीत प्रयत्नवान् ॥
गोभूमिहिमयसाणि = वाचकाय निवेदयेत् । ्ऋह्मणान् पोजयेत् = पश्चान्पण्डलङुकपायसैः ॥
श्वै॑च्यासरूपी भगवन् युधा चाङ्गिरसोपमः । पुण्यवाञ् शीलसम्पन्न: सस्यवादी जितेन्द्रियः ॥
प्रसन्नमानस कुर्याद् दानसानोपषचारतः । स्वद्मसादादिघानू. थर्मान् सप्पृणम्क्ितवानहम् ॥
एवं प्रार्थक॑ कृत्वा व्यासस्य परमार्पन: । यजस्बी च भवेन्नित्यं यः कुयदिवमादरात् ॥
नास्दोक्तानिमान् धर्मान्. यः कुर्यान्रियतेन्द्रियः । कृत्छ्रे फलमवाप्नोति पुराणश्रवणस्य वै ॥
इसी तरह जो त्तरेण पुगणकी पुस्तकके लिये उत्तम श्रेष्ठ आसन प्रदान करते हैं, वे प्रत्येक जन्मे भोगोंका उपभोग करनेवाले
एवं ज्ञानी होते है । जो महापातकोंसे युक्तं अथवा उपपातकी होते है, वे सभी पुराणकी कथा सुननेसे ही परम पदको प्राप्त हो
जाते है । जो मनुष्य इस प्रकारके नियम-विघानसे पुणणकी कथा सुनता है, वह खेच्छनुसार भोगोको भोगकर विष्णुलोको
चला जाता है । कथाके समाप्त होनेपर श्रोत पुरुष प्रयलपूर्वक वस्र और अलकार आदिदधा पुस्तककी पुजा करे । तत्पश्चात्
सहायक ब्राह्मणसहित वाचककी पूजा करे । उस समय वाचकक गौ, पृथ्वी, सोना और वस्र देना चाहिये। तदुपरान्त ब्राह्मणोंको
मलाई, लद और खीरका भोजन कराना चाहिये । तदनन्तर परमात्मा व्यास प्रार्थना करे--'आप व्यासरूपी भगवान् बुद्धे
वृहस्पतिके समान, पुण्यवान्, शीलसम्पन्न, सत्यवादौ और जितेन्द्रिय है, आपकी कृपासे मैंने इन सम्पूर्ण धर्मोको सुना है इस
प्रकार प्रार्थना कर दान, मान और सेवासे उनके पनको प्रसन्न करना चाहिये । जो मनुष्य इस प्रकार आदरपूर्वक करता है, वह
सदा यदास्वी होता है। जो जितेन्द्रिय मनुष्य देवर्षि नारदद्वारा कहे गये इन धर्मोका पालन करता है, वह पुराण-श्रकणका सम्पूर्ण
फल पाता है। ~~
न केदे अ्हसंचारो न शुद्धिः कालब्रोधिनी । तिथियृदधिक्षयो वापि पर्वपहचिनिर्णयः ॥
इतिहासपुराणौस्तु निश्वयोऽय॑ कृतः पुरा । यत्न दूर्श हि वेदेषु तत्सव॑ लक्ष्यते स्मृतौ ॥
उभयोर्यनन दृष्टं हि तत्पुराणौः प्रगीयते ।
(मा पु*, 2, आ रध)
यज्ञ एवं कर्मकाष्डके र्तये चेद प्रमाण ह । गृहस्थोके लिये स्मृतियां ही प्रमाण है । कितु वेद और स्मृतिराख (धर्मशाख)
दोनों ही सम्यक् रूपसे पुराणि प्रतिष्ठित है । जैसे परम पुरुष परमात्मासे यह अद्भुत जगत् उत्पन्न हुआ है, वैसे ही सम्पूर्ण
संसारका वाह्॒य--साहित्य पुराणोंसे ही उत्पन्न है, इसमें छेझमात्र भी संशाय नहीं है। वेदोमिं तिथि, नक्षत्र आदि काल-निर्णायक
और ग्ह-संचारकी कोई युक्ति नहीं बतायो गयी है । तिथियोंकी युद्धि, क्षय, पर्व, ग्रहण आदिक निर्णय भी उनमें नहीं है। यह
निर्णय सर्वप्रथम इतिहास-पुराणोकि द्वारा ही निश्चित किया गया है। जो बाते वेदॉमें नहीं हैं, वे सब स्मृतियोंमें हैं और जो बाते
इन दोनोंमें नहीं मिलतों, वे पुराणोंके द्वारा ज्ञात होती हैं।