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गये हैं । ग्रीवा अर अगुल और दोनों भुजाओं का आयाम व्यालीश
अगुल का होता है ।'' इरी प्रकार शरीर के प्रत्येक अङ्ग की--हथे-
लियों और पाँच अगुलियों तक की नाप ठीक-ठीक बतलाई गई है,
जिससे मूर्ति सब प्रकार से सुन्दर दिखाई दे और उसमें कहीं वेडौलपन
नहो। ।
ओर भी कई अन्य महत्वपूर्ण विषय इस खण्ड मे मिलते हैं । भृगु,
अज्िरस, अत्रि, कुशिक, कश्यप, वसिष्ठ आदि सभी प्रमूख ऋषियों के
नाम, गोत्र, वंश, प्रवर स्पष्ट रूप में दिये गये हैं। ये ऋषि भारतीय
संस्कृति के आदि जनक माने जाते है और अधिकाँश पौराणिक उपा-
ख्यान इन्हीं वंशों से किसी न किसी रूप में सम्बन्धित है। नरसिंह
ओर वाराह अवतारो के चरित्र के विषय में भी मत्स्य पुराण का वर्णनं
कुछ विशेषता लिये हुए है । देवासुर संग्राम में दोनों पक्षों के सेना-
नायको तथा वीरो का परिचय और उनका संग्राम कवि कल्पना का
अच्छा परिचय देने बाला है । सावित्री सत्यवान की कथा इस पुराण
में भी छः सात अध्यायो में दी गई है और उसकी वर्णन शैली
प्रभावशाली है । मंगल -अमंगल सूचक शक्नो, तरह-तरह के
स्वप्नों और अङ्कां को फड़कने का जो फलादेश दिया गया है वह
अधिकांश पाठकों को आकषक जान पड़ेगा ।
अठारहों पुराणों के स्तर पर विचार करते हुए “मत्स्य पुराण”
को महत्वपूर्ण ही माना जायगा । यह न बहुत अधिक बड़ा है और न
बहुत छोटा और पुराण के पाँचों अंगों के साथ इसमें पर्याप्त जीवनो-
पयोगी और समाज की दृष्टि से प्रगतिशील विद्याओं और कलाओं का
परिचय दिया गया है । यद्यपि हम एक हजार पृष्ठ में सब बातों को
पूरे विस्तार के साथ नहीं दे सकते तब भी संशोधित संस्कारण में
पाठकों को सभी आवश्यकीय बातौ का ज्ञान हो सकेगा और वे स्वयं
इसके महत्व को अनुभव कर सकेंगे ।
-सम्पादक