०००१2 प्रयागमें ऋधियोंका समागन; सूतजीके प्रति भराजजाका प्र रा: १]
रसपात्राणि चाम्भांसि रूपमात्रं सपावृणोत्।
विकुर्वाणानि चाम्भांसि गन्धमात्रं ससर्जिरे ॥ ४९
तस्माज्जाता मही चेयं सर्वभूतगुणाधिका ।
संधातो जायते तस्मात्तस्य गन्धगुणो मतः ॥ ५०
तस्मिस्तस्मिस्तु तन्यात्रा तेन तन्मात्रता स्मृता ।
तन्यात्राण्यविशेषाणि विशेषाः क्रमशोपरा: ॥ ५१
भूततन्मात्रसर्गोऽयमहंकारात्त तामसात्।
कीर्तितस्ते सपासेन भरद्वाज मया तव॥ ५२
नैजसानीन्दरियाण्याहुर्दैवा वैकारिका दश।
एकादशं पनश्चात्र कीर्तितं तत्र चिन्तकैः ॥ ५३
बुद्धीद्धियाणि पड्कात्र पञ्च कर्पेन्दियाणि च।
तानि वक्ष्यामि तेषां च कर्माणि कुलपावन ॥ ५४
श्रवणे च दृशौ जिद्वा नासिका त्वक् च पञ्चमी ।
शब्दादिज्ञानसिद्धपर्थं युद्धियुक्तानि पज्च यै॥ ५५
पायुपस्थे हस्तपादौ वाग् भरद्वाज पञ्चमी।
विसर्गानन्दशिल्पी च गत्युक्ती कर्म तत्स्मृतम् ॥। ५६
आकाशवायुतेजांसि सलिलं पृथिवी तथा।
शब्दादिभिर्गुणैर्विप्र संयुक्तान्युत्तरोत्तर: ॥ ५७
नानावीर्याः पृथग्भूतास्ततस्ते संहतिं चिना।
नाशक्नुवन् प्रजां स्रष्टमसमागम्य कृत्स्रः ॥ ५८
सपेत्यान्योन्यसंयोगं
एकसंघातलक्ष्याश्च सम्पराप्यैक्यमशेषतः ॥ ५९
पुरुषाधिष्ठितत्वाच्य प्रधानानुग्रहेण च।
महदाद्या विशेषान्तास्त्वण्डमुत्पादयन्ति ते॥ ६०
परस्यरसमाश्रयात्।
प्रयागमें ऋषियोंका समागम; सूतजीके प्रति भरद्वाजजीका प्रन ५
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रूप गुणवाले तेजने रस गुणवाले लको आयुत किया।
और अमुकं यायुको' कोई
विशेष भेद (अन्तर) नहीं होता। किंतु उन तन्मात्राओँसे
प्रकट हुए आकाशादि भूत क्रमशः विशेष (भेद ) -युक्त
होते हैं। इसलिये उनकी 'पिशेष' संज्ञा है। भरद्वाजजी !
तामस अहंकारसे होनेयालो यह पज्यभूतों और वन्माकरओंको
सृष्टि मैंने आपसे थोड़ेमें कह दी ॥४१--५२॥
सुष्टि-तत्वपर विचार करनेयाले विद्ानेनि इन्द्रियॉंको
उत्पन्न कहा है। कुलको पवित्र करनेवाले भरद्वाजजी ! इन
इन्द्रियोंमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। अब
भँ उन सम्पूर्ण इन्द्रियों तथा उनके कर्मोंका घर्णन कर रहा
हूँ। कान, नेत्र, जिह्वा, नाक और पथयो त्यचा-ये पाँच
“ज्ञानेन्द्रियां' कही नयौ हैं, जो शब्द आदि विपयोंका
ज्ञान कणनेके लिये हैं। तथा पायु (गुदा), उपस्थ (लिङ्ग),
हाथ, पाँव और वाक्-इन्दरिय-ये ' कर्मेन्द्रियाँ' कहलाती
हैं। विसर्ग (मल-त्याग), आनन्द (मैथुतजनित सुख).
शिल्प (हाथकी कला), गमन और योलना--ये हो क्रमश:
इन कर्मेन्द्रियोंके पाँच कर्म कहें गये हैं॥५३--५६ ॥
विप्र! आकाश, यायु, तेज, जल और पृथिबी-ये
पाँच भूत क्रमश: शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-इत
गुणोंसे उत्तरोत्तर युक्त हैं, अर्थात् आकाशमें एकमात्र शब्द
शुण है, वायुम शब्द और स्पर्श दो गुण हैं, तेजमें शब्द,
स्पशं और रूप तीन् गुण हैं, इसी प्रकार जलमें चार और
पृथि पाँच गुण हैं। ये पश्रभूत अलग-अलग भिन्न-
भिन्न प्रकारकी शिवो युक्त हैं। अत: परस्पर पूर्णतया
मिले बिना ये सूष्टि-रचना नहीं कर सके। तत्र एक ही
संघातको उत्पन्न करता जिनका लक्ष्य है, उन महतत्वसे
लेकर पशुभूतपर्षत्स सभी विकारोंने पुरुषसे अधिप्ठित
होनेके कारण परस्पर मिलकर एक-दूसरेका आश्रय ले.