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श * पुराण परम पुष्यं धविष्यं सर्वसोरख्यदप्‌ «

पुराण-श्रवण-कालमें पालनीय धर्म

अद्धाधक्तिसमायुक्ता नान्यकार्येषु त्माल्छसाः । वाग्यताः शुखयोऽव्यप्राः श्रोतारः पुप्यभागिनः ॥

अभक्त्या ये कथा पुण्यां शृण्यन्ति मनुजाधमाः । तेषां पुण्यफले नास्ति दुःखं॒स्याज्जन्मजन्मनि ॥

पुराणै ये च सम्पून्य ताष्बूलादयैरुपायनैः । शृण्वन्ति च कथो भक्त्याऽ्दरिद्राः स्युर्न संदाय: ॥

कथाया कीर््पमानायां ये गच्छन्त्यन्यतो नराः । योगान्तरे प्रणकयन्ति तेषौ दाराश्च सप्पदः ॥

सोष्णीषमस्तका ये च कथा श्ूण्यन्ति पायनीम्‌ । ते बलाकाः प्रजायन्ते पापिनो मनुजाधमाः ॥

ताम्बूलं भक्षयन्तो ये कथां शृण्वन्ति पावनीम्‌ । श्रविष्ठ खारयन्त्येलान्‌ नयन्ति यमकिंकराः ॥

ये च तुङ्गासनारूढाः क्था शृण्वन्ति दाम्भिकाः अश्षव्यनरकान्‌ भुक्त्वा ते भवन्त्येव वायसाः ॥

ये यै वरासनारूढा ये च मध्यासनस्थिताः । शृण्वन्ति सत्कथां ते वै भवन्त्र्जुनपादपाः ॥

असम्प्रणम्य शृण्वन्ति विषभक्षा भवन्ति ते। तथा शयानाः नृण्वन्ति भवन्त्यजगरा नराः ॥

जो स्मरेग श्रद्धा ओर भक्तिसे सम्पन्न, अन्य कार्यौकी लालसासे रहित, मौन, पवित्र और शान्तचित्तमे (पुराणकी कथाको)

श्रवण करते हैं, वे ही पुण्यके भागी छोते रै । जो अधम मनुष्य भक्तिरहित होकर पुण्यकथाको सुनते है, उन्हें पुण्यफल तो मिलता

नही, उलटे प्रत्येक जन्ममें दुःख भोगना पड़ता है । जो रोग ताम्बूल, पुष्प, चन्दन आदि पूजन-सामम्नियोद्ाय पुराण्की भलीभाँति

पूजा करके भक्तिपूर्वक कथा सुनते हैं, वे निःसंदेह दरिद्रतारहित अर्थात्‌ घनवान्‌ होते हैं। जो मनुष्य कथा होते समय अन्य

कार्योकि लिये वहाँसे उठकर अन्यत्र चले जाते हैं, उनकी पत्नी और सम्पति नष्ट हो जाती है । जो पापी अधम मनुष्य मस्तकपर

पगड़ी बांधकर (या टोपी लगाकर) पवित्र कथा सुनते हैं, वे बगुला होकर उत्पन्न होते हैं। जो स्थेग पान चाति हुए पवित्र

कथा सुनते हैं, उन्हें कुतकः मल भक्षण करना पड़ता है और यमदूत उन्हें यमपुरीमे ले जाते हैं। जो ढोंगी मनुष्य (व्यासासनसे)

ऊँचे आसनपर बैठकर कथा सुनते हैं, वे अक्षय नरकॉका भोग करके कौआ होते है । जो लोग (व्यासासनसे) श्रेष्ठ आसनपर

अथवा मध्यम आसनपर बैठकर उत्तम कथा श्रवण करते हैं, वे अर्जुन नामक वृक्ष होते हैं। (जो मनुष्य पुराणकी पुस्तक और

व्यासकों) बिना प्रणाम किये ही कथा सुनते हैं, ये विषभक्षी होते हैं तथा जो ल्त्रेग सोते हुए कथा सुनते हैं, वे अजगर साँप

होते हैं।

यः श्रृणोति कथां वक्तुः समानासनसंस्थितः । गुरुतल्पसमं पापं सम्प्राष्ष. नरकं व्जेत्‌ ॥

ये निन्दन्ति पुराणज्ञान्‌ कथौ वै पापहारिणीय्‌ । ते यै जन्मवातै पर््याः सूकरा: सम्भवन्ति हि ॥

कदाचिदपि ये पुण्यौ न शूण्यन्ति कथौ नराः । ते भुक्त्वा नरकान्‌ घोरान्‌. भवन्ति वनसूकराः ॥

ये कथामनुमोदन्ते कीर्त्यमानो नरोत्तमाः | अभृण्वन्तोऽपि ते यान्ति शाश्र॒ते परमंपदम्‌ ॥

कथायां कीरचत्यघानायां विघ्नं कुर्वन्ति ये शठाः । कोट्यब्द नरकान्‌ भुक्त्वा भवन्ति घामसूकराः ॥

ये श्रावयन्ति मनुजान्‌ पुण्यौ पौराणिकी कथाप्‌ । कल्पकोटिशते साग्र तिष्ठन्ति ब्रह्मणः पदे ॥

आसतनार्थ प्रयच्छन्ति पुराणज्ञस्य ये नराः । कम्बलाजिनसासांसि मश्च फलकपेव च ॥

स्वर्गलोकं समासाद्य भुक्त्वा भोगान्‌ यथेप्सितान्‌ । स्थित्वा ब्रह्मादिस्लेकेषु पद॑ यान्ति निरामयम्‌ ॥

इसी प्रकार जो वक्ताके समान आसनपर बैठकर कथा सुनता है, वह गुर-दाय्या-गमनके समान पापका भागी होकर

नस्कगामी होता है । जो मनुष्य पुराणोकि ज्ञाता (व्यास) और पापको हरण करनेवाली कथाकी निन्दा करते हैं, ये सौ जन्मोतक

सूकर-योनिमें उत्पन्न होते है । जो मनुष्य इस पुष्य कथाको कभी भी नहीं सुनते, वे घोर नरर्कोका भोग करके वनैले सूअर

होते हैं। जो नरश्रेष्ट कही जाती हुई कथाका अनुमोदन करते हैं, वे कथा न सुननेपर भी अविनादी परम पदको प्राप्त होते हैं।

जो दुष्ट कही जाती हुई कथामें विघ्न पैदा करते हैं, वे करोड़ों वर्षोंतक नस्वो्रोेंका भोग करके अन्तये ग्रामीण सूअर होते हैं।

जो ल्त्रेग साधारण मनुष्योंको पुराणसम्बन्धी पुण्य कथा सुनाते हैं, वे सौ करोड़ कल्पोंसे भी अधिक समयतक कऋह्यततरेकर्ये निवास

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