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६ * पुराण परम पुण्य भविष्य सर्वसौख्यदप्‌ «

“भविष्यपुराण' ---एक परिचय

भारतीय वाल्डयमें पुराणोंका एक विशिष्ट स्थान है। इनमें

वेदके निगृढ़ अर्थोका स्पष्टीकरण तो है ही, कर्मकाण्ड,

उपासनाकाण्ड तथा ज्ञानकाण्डके सररतम विस्तारके

साथ-साथ कथावैचित्रय्के द्वाव साधारण जनताको भी

गूढ़-से-गृूढ़तम तत्वको हृदयङ्गम करा देनेकी अपनी अपूर्व

विशेषता भी है। इस युगमें धर्मकी रक्षा और भक्तिके मनोरम

क्किासका जो यत्किंचित्‌ दर्जन हो रहा है, उसका समस्त श्रेय

पुराण-साहित्यको ही है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति और

साधनाके क्षत्रप कर्म, ज्ञान ओर भक्तिका मूल स्रोत वेद या

श्रुतिकों ही माना गया है। वेद आपौरुषेय, नित्य और स्वयं

भगयान्त्की शब्दमयी मूर्ति हैं। स्वरूपतः वे भगवानके साथ

अभिन्न हैं, परंतु अर्थकी दृष्टिसे वेद अत्यन्त दुरूह भी हैं।

जिनका ग्रहण तपस्थाके बिना नहीं किया जा सक ] । व्यास,

वाल्मीकि आदि ऋषि तपस्याद्वारा ईश्वरकृपासे ही वेदवर प्रकृत

अर्थ जान पाये थे। उन्होंने यह भी जाना धा कि जगतके

कल्याणके लिये येदके निगृढ़ अर्थका प्रचार करनेकी

आवश्यकता है। इसलिये उन्होंने उसी अर्थको सरल भाषामें

पुराण, रामायण और महाभारतके द्वारा प्रकट किया। इसीसे

दाखोमें कहा है कि रामायण, महाभारत और पुराणोकी

सहायतासे वेदोंका अर्थ समझना चाहिये--“इतिहास-

पुराणाभ्यां वेदै समुपबृंहयेत्‌ ।' इसके साथ ही

इतिहास-पुराणको वेदोंके समकक्ष पञ्चम वेदके रूपमे माना

गया है। छद्दोग्योपनिपदमे नारदजीने सनत्कुमारजीसे कहा

है--स ज्ोवाच्च ऋष्वेद भगवोऽध्येमि यजुर्वेद <

सापकेदमाधर्वण चतुर्धपितिहासपुराण पञ्चमं॑ वेदानां

वेदम्‌, । “मैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा चौये अथर्ववेद

और पाँचवें वेद इतिहास-पुणणको जानता ह ।' इस प्रकार

पुराणोंकी अनादिता, प्रामाणिकता तथा सङ्गलमयताका सर्वक्र

उल्लेख है ओर वह सर्यथा सिद्ध तथा यथार्थ है । भगवान्‌

व्यासदेवने प्राचीनतम पुराणःका प्रकाश और प्रचार किया है।

वस्तुतः पुराण अनादि और नित्य हैं।

पुराणो भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार तथा सकाम एवं

निष्क्रमकर्मकी महिमाके साथ-साथ यज्ञ, व्रत, दान, तप,

लीर्थसेवन, देवपूजन, श्राद्ध-तर्पण आदि जझास्त्रविहित शुभ

कमाँपें जनसाधारणको प्रवृत्त करनेके लिये उनके लौकिक एवं

पारलौकिक फल्म्रेंका भी वर्णन किया गया है। इनके अतिरिक्त

पुराणोंमें अन्यान्‍्य कई विषयोंका समावेश पाया जाता है।

इसके साध ही पुराणोंकी कथाओमें असम्भव-सी दीखनेवाली

कुछ अते परस्पर विरोधी-सी भी दिखायी देती हैं, जिसे स्वल्य

श्रद्धायाले पुरूष काल्पनिक मानने छगते हैं। परंतु यथार्थमें

ऐसी बात नहीं है। यह सत्य है कि पुराणोंमें कहीं-कहीं

न्यूनाघिकता हुई है एवं विदेशी तथा विधर्मियोकि

आक्रमण-अत्याचारसे बहुतसे अंडा आज उपलब्ध भी नहीं

हैं। इसी तरह कुछ अंग प्रक्षिप्त धी हो सकते हैं। परेतु इससे

पु7ाणोंकी मूल महत्ता तथा प्राचीनतामें कोई बाधा नहीं आती ।

*भविष्यपुराण' अद्रह महापुराणोंके अन्तर्गत एक

महत्त्वपूर्ण सत्विक पुराण है, इसमें इतने महत्त्वके विषय भी

है, जिन्हे पढ़-सुनकर चमत्कृत होना पडता. है । यद्यपि

इत्मेक-संख्यामें न्यूनाधिकता प्रतीत होती है। धविष्यपुराणके

अनुसार इसमें पचास हजार इलोक होने चाहिये; जबकि

वर्तमानमें अद्टाईस सहस्त्र इल्प्रेक ही इस पुराणमें उपलब्ध

है। कुछ अन्य पुरणोंके अनुसार इसकी इल्लोक-संख्या साढ़े

चौदह सहल होनी चाहिये । इससे यह प्रतीत होता है कि जैसे

विष्णुपुराणकी इल्म्रेक-संख्या विष्णुधर्मोत्तरपुराणको सम्मिलित

करनेसे पूर्ण होती है; वैसे हो भविष्यपुराणमें भविष्योततरपुराण

सम्मिलित कर लिया गया है, जो वर्तमानमें भविष्यपुराणका

उत्तरपर्व है। इस पर्वमें मुख्यरूपसे क्त, दान एवं उत्सवोका ही

वर्णन है।

वस्तुतः भविष्यपुराण सौर-प्रधान ग्रन्थ है। इसके

अधिष्ठातृदेव भगवान्‌ सूर्य है, वैसे भो सूर्यनारायण प्रत्यक्ष

देवता हैं जो पञ्चदेयोमि परिगणित हैं और अपने शास््ोकि

अनुसार पूर्णब्रह्मके रूपमें प्रतिप्तित है । ट्विजमात्रके लिये प्रातः,

मध्याह्न एवं सायंकालकी संध्यामें सूर्यदेवको अर्थ्य॑ प्रदान

करना अनिवार्य है, इसके अतिरिक्त स्वौ तथा अन्य आश्रमोकि

लिये भी नियमित सूर्यार्ध्य देनेक्रो विधि बतलायी गयी है।

आधिभौतिक और आधिदैविक रोग-ज्ञोक, संताप आदि

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