+ अध्याय ८९१५ १६९
पशु कला आदिसे लेकर भूमिपर्यन्त सारे | माया तथा कर्म-त्रिविध पाशोंसे बँधा हुआ
तत्त्वसमूहोंसे बैँधा होता है (अर्थात् वह मल, | बताया गया है ।)* ॥ २-३ ६॥
* जिस जौयात्मायें आणब, मायेव और कर्मज--तौतों मल (पाश) रहते हैं, बह कला आदि भोग-अन्धतोंसे युक्त होनेके
कारण 'सकल' कहा गया है। पाशुपत-दर्शनके अनुसार विज्ञनाकल पशु (जीव)-के भी दो भेद है सयाप्त कलुष" और असमाप्त
कालुष'। (१) जौवात्मा जो कर्म करता है, उस प्रत्वेक कर्मकी वह मलपर जमती रहती हैं। इसी कारण ठस मलका परिपाक नही होने
जाता; किंतु जब कर्मोंका त्याग हों जाता है, तब ताह ज जमत्रेके कारण मलका परिषाक हो जाता है और जीवात्माके स्वे कलुष समाप्त
हो जाते हैं, इसीलिये वह 'समाप्त-कलुष' कहलाता है। ऐसे जोवात्माओंकों भगवान् आठ प्रकारके 'विछेश्वर'-पदपर पहुँचा देते हैं।
उनके जाम ये हैं--
अनन्तश्चैव सुक्ष्श्च तपैव च शिवोत्तमः । एकनेत्रस्तथैवैकरुद्रक्ापि त़िपूर्तिक: ॥
श्रोकण्ठश्च शिखण्डों च प्रोक्ता विध्येश्वरा इमे ।
*(१) अनन्त, (२) सुक्ष्म, (३) शिवोत्तम, (४) एकनेत्र, (५) एकरद्र, (६) तिमूर्ति, (७) श्रोकण्ठ और (८) शिखण्डी।'
(२) 'असमाप्त-कलुष' वे हैं, जिवकौ कलुषयाशि अभी समाप्त नहीं हुई है । ऐसे जीवात्माओको परमेश्वर ' मनर ' स्वरूप दे देता
है। कर्म तथा शरीरसे रहित किंतु मलरूपी पाशे बधे हुए जीवात्मा हौ " सन्त्र" हैं और इनकी संख्या सात करोड़ है! ये सब अव्य
जीवात्माऑपर अपनी कृषा करते रहते ह । ' तत्व-प्रकाश ' गापक ग्रन्थे उपर्युक्त विषयके संग्राहक श्लोक इस प्रकार हैं--
पशवस्त्रिविधा: प्रोक्ता विज्ञावप्रलयाकलौ सकलः । मलयुक्छस्ततऋ्यो मलकर्मयुतो द्वितीयः स्यात् ॥
मलमायाकर्मयुत: सकलस्तेषु द्विधा भवेदाद्यः । आद्य. समाशकलुषो5समाणकलुषो द्वितोयः स्यात्॥
आद्या ननु गृह्य शिवरों खिद्येशत्वे नियोजयत्यष्टी । मन्त्रांश्च कोत्यपरान् ते चोक्ताः कोटघः सप्त ॥
“प्रलयाकल' भौ दो प्रकारके होते है -“ पक्वपाश्छधय' और 'अपक्यपाशद्वय'। (१) जिनके मल तथा कर्मरूपी दोनों पाका
परिष्छक हो गया है, ये 'पक््वपाशद्रय' होकर मोक्षको प्राण हो जाते हैं। (२) " अपक्वपाशद्य ' जीव पुर्य्टकमय देह धारण करके नाना
प्रकारके कर्मोंकों करते हुए जावा योतिरयोमि। यूमा करते है ।
"सकल ' जीवोकि भौ दो हैं--'पक्वकलुष' भेद और ' पक्वकलुष '। (१) जैसे-जैसे जौवात्पाके माल, कर्म तथा मावा -इन
पार्शोका परिपाक बढ़ता जाता है, वैसे -वैमे ये सब पाश शक्तिहीन होते जाते है । तब वे पक्वकलुष जीवात्मा ' मतत्रे ्वर' कहलाते हैं। सात
करोड़ मन्तररूपौ जोष-विकेषोकि, जिनका ऊपर वर्णन हो चुका है, अधिकारी ये हौ ११८ सल्तलेश्वर जोच है । (२) अपक्वकलुष जोव
भवकूषमें गिरते है ।
नारदपुराणमें शैव ~ महादन्सकौ मान्यताके अनुसार पाँच प्रकारके पाश बहाये गये है - (६) मलज, (२) कम॑ज, (३) मायेय
(मायाजन्य), (४) तिरोधान--शक्तिज और (५) बिन्दुज। आधुनिक शौच दर्शने चार प्रकारके पाशोंका उल्लेख है --मल, रोध, कर्म
तथा माया। रोध-ज्ञक्ति या तिरोधान-शक्ति एक हौ चस्तु है। ' ब्रिन्द' मायास्वरूप है। बह 'शिवतत््व' तामसे भौ आनने योग्य है। यद्यपि
ज्िवपद-प्राप्तिकूप परम मोक्षकी अपेक्षासे वह भी पश ही है, तथापि विछेश्वरादि-पदकी प्राध्तिमे परम हेतु होनेके कारण बिन्टु-शक्तिकों
*अषरा-मुच्छि' कहा गया है। अत: उसे आधुनिक शैव दर्शनमे 'पाश' नाम नहीं दिया गया है। इसलिये यहाँ शेष चार पारो (मल, कर्म,
रोध और माया)-के ही स्थरूपका विचार किया जाता है - (१) जो आत्पाके स्वाभायिक न तथा क्रिया-शक्तिको ढक ले, यह “मल'
(अर्थात् अज्ञात) कहलाग है। यह मल आत्मास्वरूपका केवल आच्छादत ही वही करत, किंतु जीवात्माकों बलपूर्वक दुष्कमे प्रवृत्त
करनेवाला पाश भी यही है। (२) प्रत्येक वस्तुपें जो साम्यं है, उसे ' 'शिवशक्ति' कहते हैं। जैसे अग्निमें दाहिका शक्ति। यह शक्ति जैसे
पदार्थे रहतौ है, वैसा हो भला-बुरा स्वरूप धारण कर लेती है; अत: पाले रहतों हुईं यह शक्ति जब आत्माफे स्वरूपको वक लेती है,
तब यह 'रोप-शक्ति' या 'तिरोधात-पाश' कहलाती है। इस अवस्था जीव शरौरकों आत्मा मानकर शरीरके पोषणमें लगा रहता है;
आत्माके उद्धारका प्रयत्न नहीं करता। (३) फलकी इच्छासे किये हुए ' धर्माधर्म" रूप कर्मोंको ही “कर्मपाशञ' कहते हैं। (४) जिस
शक्तिमें प्रलयके समय सब कुछ लोन हो जाता है तथा सृष्टिके समय जिसमेंसे सब कुछ उत्पतन हो जाता है, यह ' मायापार " है। अतः
इन पारमे बंधा हुआ पशु जब तत्त्यज्ञानद्वारा इनका उच्छेद कर डालता है, तभौ कह “परम शिवतत्त्व' अर्थात् 'पशुपति-पद' को प्राप्त
होता है।
दीक्षा ही शिवत्व-प्राप्तिका साधन है । सर्वानुप्रहक परमेश्वर हौ आचार्य-शरौरमें स्थित होकर दीक्षाकरणद्वारा जौषकों परम शिवतत्त्वकी
प्राष्ति कराते हैं; ऐसा हौ कहा भी है--“योजयति परे तत्वे स दीक्षया55चार्यमूर्तिस्थ:।'
*अपक्यपाशह्य प्रलयाकल' जोव तथा ' अपक्वकलुष सकल ' जोव जिस पुर्य्टक देहकों धारण करते हैं, वह पञ्चघूत तथा मन,
चुद्धि, अहंकारं-इत आठ तत्त्वॉसे युक्त होनेके कारण पर्यटक ' कहलाता है। पर्यटक शरीरं छत्तीस तत्वॉसे युक्त होता है। अनार्भोगके
साधषभूत कला, काल, वियति, विद्या, राग, प्रकृति और गुण-ये सात तत्त्व, पश्भूत, पश्चतत्मात्रा, दस इद्धियाँ, चार अन्तःकरण और
चाँच शब्द आदि विषय--ये छत्तीस तत्त्व हैं। अपक्वपाशद्रय जीवों जो अधिक पुण्पात्मा हैं, उन्हें परम दयालु भगवान् महे शवर भुषनेश्वर
या लोकपाल बना देते हैं।