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इन पाशोंसे मुक्त होनेके लिये जौवको आचार्यसे

मन्त्राराधनकी दीक्षा लेनी होती है। वह दीक्षा दो

प्रकारकी मानी गयी है-एक ' निराधारा" और

दूसरी " साधारा" । उपर्युक्त तीन पशुओमेंसे विज्ञानकल

और प्रलयाकल -इन दो पशुओंके लिये निराधारा

दीक्षा बतायी गयी है ओर सकल पशुके लिये

साधार। आचार्यकी अपेक्षा रखकर शम्भुदारा

ही तीव्र शक्तिपात करके जो दीक्षा दी जाती है,

वह 'निराधारा' कही गयी है। आचार्यके शरीरमें

स्थित होकर भगवान्‌ शंकर अपनी मन्दा, तीव्रा

आदि भेदवाली शक्तिसे जिस दीक्षाका सम्पादन

करते हैं, वह 'साधार' कहलाती है। यह साधारा

दीक्षा सबीजा, निर्बीजा, साधिक और अनधिकारा --

इन भेदोकि द्वारा जिस तरह चार* प्रकारकी हो

जाती है, वह बताया जाता है ॥ ४--७ ‡ ॥

समर्थ पुरुषोंको जो समयाचारसे युक्त दीक्षा

दी जाती है, उसे 'सबीजा' कहते हैं और असमर्थ

क अग्निपुराण क

पुरुषोंकों दी जानेवालौ समयाचारशून्य दीक्षा

"निर्बीजा" कही गयी है॥ ८ ‡॥

जिस दीक्षासे साधक और आचार्यको नित्य-

नैमित्तिक एवं काम्य कर्मोरमे अधिकार प्राप्त होता

है, वह ' साधिकारा दीक्षा' है। "निर्बीजा दीक्षा

में दीक्षित होनेवाले लोगोको तथा समयाचारको

दीक्षा लेनेवाले साधारण शिष्य एवं पुत्रकसंज्ञक

शिष्यविशेषको नित्यकर्म-मात्रके अधिकारी होनेके

कारण जो दीक्षा दी जाती है, वह " निरधिकारा

दीक्षा' कहलाती है । साधारा और निराधारा भेदसे

जो दीक्षाके दो भेद बताये गये हैं, उनर्मेसे

प्रत्येकके निप्नाह्कित दो रूप (या भेद) और होते

हैं--एक तो ' क्रियावती" कही गयी है, जिसमें

कर्मकाण्डकी विधिसे कुण्ड और मण्डलकौ

स्थापना एवं पूजा की जाती है । दूसरी ' ज्ञानवती

दीक्षा' है, जो बह्म-सापग्रीसे नही, मानसिक

व्यापारमात्रसे साध्य है॥ ९--१२॥

* ज्ञारदापटलमें दौक्षाके चार भेदोंका विस्तारे वर्णन है। वे चार भेद है - क्रियावती, वर्णपयी, कलावती और वेधमयो । क्रियावतो

दौश्चाते कर्मकाण्डका पूरा उपयोग होता है । स्नान, संध्या, प्राणायाम, भूतशुद्धि, न्यास, ध्यान, पूजा, शङ्खं - स्थापन आदिसे लेकर शास्त्रोक्त

पद्धतिसे हवन- पर्यन्त कर्म किये जाते ह । षडध्वाकरे शोधन -क्रमसे पृथक्‌-पृथक्‌ आहुति देकर, शिवे विलीन करके पुत्र: सृष्टि-क्रमसे

शिष्यकः चैतन्यो सम्पादित होता है । गुरु शिष्ठसे अपनो एकताका अनुभव करता हुआ आस्पवि्याकय दान करता है । गुरु-मत्र प्राण

करके शिष्य धन्य-धन्य हौ जाता है।

*अर्णमयी दीक्षा" न्यालरूपा है। अकारादि वर्ण प्रकृतिपुरुवात्पक है । शरीर भी प्रकृतिपुरुषात्मक होनेके कारण वर्णात्मक हो है ।

इसलिये पहले समस्त शगोर्े वणका सविधि न्यास किया जाता है । प्रीपुसुदेव अपनी आज्ञा और इच्छाशक्तिसे ठम्‌ वर्णको प्रतिलोम -

विधिसे अर्थात्‌ संहार-क्रमसे विलोन कर देते है । यह क्रिया सम्पन्न होते हौ शिष्यका शरौर दिव्य हो जाता है और गुरुके द्वारा वह

चरमात्मामें मिला दिया जाता है । ऐसो स्थिति होनेके पश्चाद्‌ श्रीगुरुदेव पुनः लिष्यको पृथक्‌ करके दिव्य शरीरकी सृष्टि-क्रमसे रचना करते

है । शिष्यमें परमावन्दस्वरूप दिव्यभावका विकास होता है और वह कृतकृत्य हो जाता है ।

"कलावती दीक्षा कौ विधि निम्नलिखित है--मनुष्यके शरौरमें पाँच प्रकारकी शक्तियाँ प्रतिष्ठित हैं। चैरके ठलवेसे जातु-

पर्यन्त “नियृत्ति-शक्ति” है, आनुते वाभि-पर्यन्त 'प्रतिष्ठा-शाक्ति' है, जाभिसे कण्छ-पर्षश्त 'विध्ा-शक्ति' है, कण्ठसें ललाट-पर्यन्त

*ज्ञान्ति-शक्ति' है, ललाटसे शिखा-पर्यन्त 'शान््यतीतकला-शक्ति ” है। संहार-क्रमसे पहलीको दूस्तीमें, दूसरीकों तीसरीमें और अन्तिम

कल्लाको शिवमें संयुक्त करके शिष्य शिवरूप कर दिया जाता है। पुनः सृष्टि-क्रमसे इसका विस्तारं किया जाता है और शिष्य दिव्य

भावको प्राप्त होता है ।

+ज्ेधमयी दीक्षा ' पर्चऋर-वेधत हौ है। जब गुरु कृपा करके अपनी शक्तिसे शिष्यका घट्चक्रभेद कर देते हैं, तब इसौकों ' मेघमयी

दौक्षा' कहते हैं। गुरु पहले शिष्यके छः चक्रोंका चिन्तन करते हैं और उन्हें क्रमश: कुण्डलिनी शक्तिमें विलोन करते हैं। छ: चक्रोंका

विलयन बिन्दु करके तथा बिन्दुकों कलामें, कलाकों नादे, नादको नादान्तमें, नादान्तको उन्मनरीमें, उन्यनीको विष्णुमुखमें और

तत्पक्षात्‌ गुरुमुखमें संयुक्त करके अपने साथ ही उस शक्तिको परमेश्वरमें घिला देते हैं। गुरुको इस कृपासे शिष्पका प्च छिन्न-भिन हो

जाता है। उसे दिव्य बोधको प्राप्ति होती है और वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार यह '“खोधमयों दीक्षा' सम्य होती है।

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