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औआ८ २ )

भमश्चतु्दङाश्चात्न मैत्रेय भविता मनुः ।

शुचिरिन्रः सुरगणास्तत्र पञ्च श्पृणुप्र तान्‌ ॥ डर

चाक्षुषाश्च पवित्राश्च कनिष्ठा भ्राजिकास्तथा ।

वाचावृद्धाश्न वै देवास्सप्र्षीनपि मे शृणु ॥ ४३

अग्रिवाहुः शुचिः शक्रो पागधोऽप्रिध एव च ।

युक्तस्तथा जितश्चान्यो मनुपुत्रानतः शृणु ॥ डड

ऊरुगम्भीरबुद्धयाद्या मनोस्तस्य सुता नृपाः ।

कथिता मुनिझारदूल पालयिष्यन्ति ये महीम्‌ ।॥ ४५

चतुर्युगान्ते वेदानौ जायते किल विद्रवः ।

भ्रवर्तयन्ति तानेत्य भुवं सप्तर्षयो दिवः ॥ ४६

कृते कृते स्मृतेर्विप्र प्रणेता जायते मनुः ।

देवा यज्ञभुजस्ते तु यावन्यन्वन्तरं तु तत्‌ ॥ ४७

भवन्ति ये मनोः पुत्रा यावन्यन्वन्तरं तु तैः ।

तदन्वयोद्धवैश्चैव तावद्धः परिपाल्यते ॥ ४८

मनुस्सप्र्षयो देवा भूपालाश्च पनोः सुताः ।

मन्वन्तरे भवन्त्येते शाक्रश्चैवाधिकारिणः । ४९

चतुर्दञ्चधिरेतैस्तु गतैर्मन्वन्तरैद्विज ।

सहस्रयुगपर्वन्तः कल्पो निद्दोष उच्यते ॥ ५०

तावत्ममाणा च निशा ततो भवति सत्तम ।

ब्रह्मरूपधरहकोते जेषाहावम्बुसम््वे ॥ ५१

जैलोक्यपसिल ग्रस्त्वा भगवानादिकृद्धिभुः ।

स्वमायासंस्थितो विप्र सर्वभूतो जनार्दनः ॥ ५२

ततः प्रबुद्धो भगवान्‌ यथा पूर्वं तथा पुनः ।

सृष्टि करोत्यव्ययात्पा कल्पे कल्पे रजोगुणः ॥ ५३

मनवो भूभुजस्सेद्रा देवास्सपतर्षयस्तथा ।

सात्विकोऽश्ञः स्थितिकरे जगतो द्विजसत्तम || ५४

चतुर्युगेऽप्यसौ विष्णुः स्थितिव्यापारलक्षणः ।

युगव्यवस्थां कुरुते यथा मैत्रेय तच्छृणु ॥ ५५

कृते युगे परं ज्ञानं कपिलादिस्वरूपधृक्‌ ।

ददाति सर्बभूतात्मा सर्वभूतहिते रतः ॥ ५६

चक्रवर््तिस्वरूपेण त्रेतायापपि स प्रभुः ।

दृष्टानां निग्रहं कुर्वन्परिपाति जगत्रयम्‌ ॥ ५७

तृतीय अंश

१६९

हे मैत्रेय ! चौदहवां मनु भौम होगा । उस समय

रचि नामक इन्द्र और पाँच देवगण होंगे; उनके नाम

सुनो--वे चाक्षुष, पवित्र, कनिष्ठ, भ्राजिक और वाचावृद्ध

नामक देवता हैं। अब तत्कालीन सप्मर्षियोंके नाम भी

सुनो ॥ ४२-४३ ॥ उस समय अग्राद्‌, दाचि, शुक्र,

मागध, अध्रिध, युक्त और जित--ये सर्पि होंगे। अब

मनुपुत्रोंके विषयमें सुनो ॥ ४४ ॥ हे मुनिशार्द्ल ! कहते

हैं, उस मनुके ऊरु और गम्भीरबुद्धि आदि पुत्र होंगे जो

गान्याधिकारी होकर पृथिवीका पालन करेंगे ॥ ४५ ॥

प्रत्येक यतुर्युगके अच्तपें वेदोंका लोप हो जाता है,

उस समय सप्तर्षिणण ही स्वर्गलोकसे पृथिवीम अवतीर्ण

होकर उमनकत्र प्रचार करते हैं॥ ४६ ॥ प्रत्येक सत्ययुगके

आदिमे [ मनुष्योंकी धर्म-मर्यादा स्थापित करनेके लिये }

स्पृति-शास्त्रके रचयिता मनुका प्रादुर्भाव होता है; और उस

मन्यन्तरके अन्त-पर्यन्त तत्कालीन देवगण यज्ञ-भागोंको

भोगते हैं ॥ ४७॥ तथा मनुके पुत्र और उनके जेशघर

मन्वन्तरके अन्ततक पृथिवोका पालन करते रहते

हैं ॥ ४८ ॥ इस प्रकार मनु सप्तर्षि, देवता, इन्द्र तथा

मतु-पुत्र राजागण--ये प्रत्येक मन्वन्तरके अधिकारों

होते है ॥ ४९ ॥

हे द्विज ! इन चौदह मन्वन्तरोंके बीत जानेपर एक

सहस्र युग रहनेवाक्ला कल्प समाप्त हुआ कहा जाता हैं

॥ ५० ॥ है साधुश्रेष्ट! फिर इतने ही सपयकी रात्रि

होती है। उस्र समय ब्रह्मरूपधारी श्रीविष्णुभगवान्‌

प्रल्यकालीन जलके ऊपर शेष-शब्यापर शयन करते

हैं॥ ५६१ ॥ हे विष ! तब आदिकर्ता सर्वन्यापक सर्वभूत

भगवान्‌ जनार्दन सम्पूर्ण त्रिलोकीका आस कर अपनी

माये स्थित रहते है ॥ ५५२ ॥ फिर [प्रय-रात्रिका

अन्त होनेपर] प्रत्येक कल्पक आदिमे अव्ययात्मा

भगवान्‌ जाग्रत्‌ होकर रजोगुणका आश्रय कर सुष्टिकी

रचना करते टै ॥ ५३॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! मन्‌, मनु-पुत्र

राजागण, इन्द्र देवता तथा सप्र्षि--ये सवर जगत्‌क़ा

पालन करनेवाले भगवागके सात्विक अदा हैं॥ ५४ ॥

है मैत्रेय! स्थितिकारक भगवान्‌ विष्णु चारों

युगॉमें जिस प्रकार व्यवस्था करते हैं, स्रो सुनो--- ॥ ५५॥

समस्त प्राणियोंके कल्याणमें तत्पर वे सर्वभूतात्मा सत्ययुगर्मे

कपिलः आदिरूप धारणकर परम ज्ञानका उपदेश करते

हैं॥ ५६ ॥ त्रेताबुगमें वे सर्वसमर्थ प्रमु चक्रवर्ती भूपाल

होकर दुष्टोंका दमन करके त्रिलोकीकी रक्षा करते हैं॥ ५७॥

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