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भमश्चतु्दङाश्चात्न मैत्रेय भविता मनुः ।
शुचिरिन्रः सुरगणास्तत्र पञ्च श्पृणुप्र तान् ॥ डर
चाक्षुषाश्च पवित्राश्च कनिष्ठा भ्राजिकास्तथा ।
वाचावृद्धाश्न वै देवास्सप्र्षीनपि मे शृणु ॥ ४३
अग्रिवाहुः शुचिः शक्रो पागधोऽप्रिध एव च ।
युक्तस्तथा जितश्चान्यो मनुपुत्रानतः शृणु ॥ डड
ऊरुगम्भीरबुद्धयाद्या मनोस्तस्य सुता नृपाः ।
कथिता मुनिझारदूल पालयिष्यन्ति ये महीम् ।॥ ४५
चतुर्युगान्ते वेदानौ जायते किल विद्रवः ।
भ्रवर्तयन्ति तानेत्य भुवं सप्तर्षयो दिवः ॥ ४६
कृते कृते स्मृतेर्विप्र प्रणेता जायते मनुः ।
देवा यज्ञभुजस्ते तु यावन्यन्वन्तरं तु तत् ॥ ४७
भवन्ति ये मनोः पुत्रा यावन्यन्वन्तरं तु तैः ।
तदन्वयोद्धवैश्चैव तावद्धः परिपाल्यते ॥ ४८
मनुस्सप्र्षयो देवा भूपालाश्च पनोः सुताः ।
मन्वन्तरे भवन्त्येते शाक्रश्चैवाधिकारिणः । ४९
चतुर्दञ्चधिरेतैस्तु गतैर्मन्वन्तरैद्विज ।
सहस्रयुगपर्वन्तः कल्पो निद्दोष उच्यते ॥ ५०
तावत्ममाणा च निशा ततो भवति सत्तम ।
ब्रह्मरूपधरहकोते जेषाहावम्बुसम््वे ॥ ५१
जैलोक्यपसिल ग्रस्त्वा भगवानादिकृद्धिभुः ।
स्वमायासंस्थितो विप्र सर्वभूतो जनार्दनः ॥ ५२
ततः प्रबुद्धो भगवान् यथा पूर्वं तथा पुनः ।
सृष्टि करोत्यव्ययात्पा कल्पे कल्पे रजोगुणः ॥ ५३
मनवो भूभुजस्सेद्रा देवास्सपतर्षयस्तथा ।
सात्विकोऽश्ञः स्थितिकरे जगतो द्विजसत्तम || ५४
चतुर्युगेऽप्यसौ विष्णुः स्थितिव्यापारलक्षणः ।
युगव्यवस्थां कुरुते यथा मैत्रेय तच्छृणु ॥ ५५
कृते युगे परं ज्ञानं कपिलादिस्वरूपधृक् ।
ददाति सर्बभूतात्मा सर्वभूतहिते रतः ॥ ५६
चक्रवर््तिस्वरूपेण त्रेतायापपि स प्रभुः ।
दृष्टानां निग्रहं कुर्वन्परिपाति जगत्रयम् ॥ ५७
तृतीय अंश
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हे मैत्रेय ! चौदहवां मनु भौम होगा । उस समय
रचि नामक इन्द्र और पाँच देवगण होंगे; उनके नाम
सुनो--वे चाक्षुष, पवित्र, कनिष्ठ, भ्राजिक और वाचावृद्ध
नामक देवता हैं। अब तत्कालीन सप्मर्षियोंके नाम भी
सुनो ॥ ४२-४३ ॥ उस समय अग्राद्, दाचि, शुक्र,
मागध, अध्रिध, युक्त और जित--ये सर्पि होंगे। अब
मनुपुत्रोंके विषयमें सुनो ॥ ४४ ॥ हे मुनिशार्द्ल ! कहते
हैं, उस मनुके ऊरु और गम्भीरबुद्धि आदि पुत्र होंगे जो
गान्याधिकारी होकर पृथिवीका पालन करेंगे ॥ ४५ ॥
प्रत्येक यतुर्युगके अच्तपें वेदोंका लोप हो जाता है,
उस समय सप्तर्षिणण ही स्वर्गलोकसे पृथिवीम अवतीर्ण
होकर उमनकत्र प्रचार करते हैं॥ ४६ ॥ प्रत्येक सत्ययुगके
आदिमे [ मनुष्योंकी धर्म-मर्यादा स्थापित करनेके लिये }
स्पृति-शास्त्रके रचयिता मनुका प्रादुर्भाव होता है; और उस
मन्यन्तरके अन्त-पर्यन्त तत्कालीन देवगण यज्ञ-भागोंको
भोगते हैं ॥ ४७॥ तथा मनुके पुत्र और उनके जेशघर
मन्वन्तरके अन्ततक पृथिवोका पालन करते रहते
हैं ॥ ४८ ॥ इस प्रकार मनु सप्तर्षि, देवता, इन्द्र तथा
मतु-पुत्र राजागण--ये प्रत्येक मन्वन्तरके अधिकारों
होते है ॥ ४९ ॥
हे द्विज ! इन चौदह मन्वन्तरोंके बीत जानेपर एक
सहस्र युग रहनेवाक्ला कल्प समाप्त हुआ कहा जाता हैं
॥ ५० ॥ है साधुश्रेष्ट! फिर इतने ही सपयकी रात्रि
होती है। उस्र समय ब्रह्मरूपधारी श्रीविष्णुभगवान्
प्रल्यकालीन जलके ऊपर शेष-शब्यापर शयन करते
हैं॥ ५६१ ॥ हे विष ! तब आदिकर्ता सर्वन्यापक सर्वभूत
भगवान् जनार्दन सम्पूर्ण त्रिलोकीका आस कर अपनी
माये स्थित रहते है ॥ ५५२ ॥ फिर [प्रय-रात्रिका
अन्त होनेपर] प्रत्येक कल्पक आदिमे अव्ययात्मा
भगवान् जाग्रत् होकर रजोगुणका आश्रय कर सुष्टिकी
रचना करते टै ॥ ५३॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! मन्, मनु-पुत्र
राजागण, इन्द्र देवता तथा सप्र्षि--ये सवर जगत्क़ा
पालन करनेवाले भगवागके सात्विक अदा हैं॥ ५४ ॥
है मैत्रेय! स्थितिकारक भगवान् विष्णु चारों
युगॉमें जिस प्रकार व्यवस्था करते हैं, स्रो सुनो--- ॥ ५५॥
समस्त प्राणियोंके कल्याणमें तत्पर वे सर्वभूतात्मा सत्ययुगर्मे
कपिलः आदिरूप धारणकर परम ज्ञानका उपदेश करते
हैं॥ ५६ ॥ त्रेताबुगमें वे सर्वसमर्थ प्रमु चक्रवर्ती भूपाल
होकर दुष्टोंका दमन करके त्रिलोकीकी रक्षा करते हैं॥ ५७॥