ज़ाह्मपर्व ]
४ सौर-अर्ममें आच्विक कर्म एवं अभिषेक-विधि «
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आपको बल, सौच्य एवं शान्ति प्रदान करें । हाथमें श एवं
श्वेत वस्त्र धारण किये हुए, स्वर्ण-आभायुक्त, भगवान् सूर्यकी
आराधना करनेवाले, तौच नेत्रोवाले नन्दीश्वर आपको धर्ममें
उत्तम युद्धि, आयम्य एकं शान्ति प्रदान करे । चिकने अज्ञनके
समान आभायुक्त,महोदर तथा महाकाय नित्य अचल आसेग्य
प्रदान करे । नाना आभूषणोंसे विभूषित नागकों यज्ञोपवीतके
रूपमे धारण किये हुए, समस्त अर्थ-सम्पत्तियोंके उद्धारक,
एकदन्त, उत्कर स्वरूप, गजबक्त्र, महाबलूशाली, गणोंके
अध्यक्ष, बर-प्रदाता, भगवान् सूर्यकी अर्चनामें तत्पर,
इकरपुत्र विनायक आपको महाशान्ति प्रदान करें। इन्द्रनीलके
नागोंसे विभूषिते, पापोंको दूर करनेवाले तथा अलक्ष्य
रूपवाले, मलोंके नाशक भगवान् झंकर प्रसन्न चित्तसे आपको
महाश्नान्ति प्रदान के । नाना अलंकारोंसे विभूषित, सुन्दर
वस्नरॉको धारण करनेवाली, देवताओंकी जननी, सारे संसारसे
नमस्कृत, समस्त सिद्धियोंकी प्रदायिनी, प्रसाद-प्राप्तेकी
एकमात्र स्थान जगत्भाता भगयती पार्वती आपको शान्ति प्रदान
करें। स्निग्ध इवामल वर्णवाली, घनुष-चक्र, खड्ग तथा
पट्टिश आयुधोको धारण की हुई, सभी उपद्रवोका नाश
भवानी दुर्गा आपको दान्ति प्रदान करे । अस्यन्त सूक्ष्म,
अतिक्रोधी, तीन नेत्रॉवाले, महावीर, सूर्यभक्त भूगिरिरि
आपका नित्य कल्याण करें। विशाल घण्टा तथा रुद्राक्ष-माला
धारण किये हुए, ब्रह्महत्यादि उत्कर पापोंका नादा करनेवाले,
प्रचण्डगणोंके सेनापति, आदित्यकी आराधनाम तत्पर
महायोगी चण्डेश्वर आपको शान्ति एवं कल्याण प्रदान करें ।
दिव्य आकाशञ-मातृकाएँ, अन्य देव-सातृकाएँ, देवताओंद्रार
पूजित मातृकाएँ जो संसारकों व्याप्त करके अवस्थित हैं और
सूर्यार्चनमें तत्पर रहती हैं, वे आपको दान्ति प्रदान करें । रौद्र
कर्म करनेवाले तथा रौद्र स्थानमें निवास करनेवाले रुद्रगण,
अन्य समस्त गणाधिप, दिशाओं तथा विदिशाओमें जो
विप्ररूपसे अवस्थित रहते हैं, वे सभी प्रसत्रचित्त होकर मेरे
द्वारा दी गयी इस बलि (नैवेद्य) को ग्रहण करें। ये आपको
नित्व सिद्धि प्रदान करें और आपकी भयोसे रक्षा करें।
आकाज्ममातरों दिव्यास्तधान्या देवम्ततरः ॥
सूर्यर्चगपरा देव्यो जगदव्याप्य व्यवस्थितः । यान्ति कुर्वन्तु ते नित्य चातः सुपूजिताः ॥
ये रद्रा रौदरकर्माणो रीट्रस्थाननिवासिन: । मातरो रुद्ररूपा = गलान्दम्पिष्ठ्च ये ॥
विध्रभूतास्तधा चान्ये दिग्विदिक्षु समाश्रिताः ।
सर्वे ते औतमनसः प्रतिगृह़कु मे बसिम्।सिद्धिं कुर्वन्तु ते नित्यै भयेभ्यः प्लु सर्वतः ॥
ऐन्द्राययो गणा ये तु वच्रहम्कः महाबल्प: । हिमकुन्ेनटुखदुधा नोलकृष्णाड्रस्थरेहिसा. ॥
दिव्याकारिक्षा. भ्वैमा फातालशलयासिक । ऐद्रा; दौ प्रकुर्व्तु भद्राणि च पुनः पुनः ॥
आग्रेय्यां ये भृताः सर्वे घुयहत्यानुषब्लिणः । सूर्यानुएत्ता. रक्ताभा. जपासुमनिभाल्तथा ॥
विरक्तस्प्रेहिता दिव्या आप्रेष्यों भास्कशदय: । आदित्यायपतफा आदिस्यातमातसा: +
आत्ति कुर्वन्तु ते नित्य प्रयच्छन्तु बति मम।
धयादित्वसमा ये तु सतते दष्डपाणय: । आदित्याराधनफा: है प्रवच्छन्तु ते सदा॥
पेयो रत्थिक ये तु प्रश्चात्ता: शूलपाणयः । भर्नोदुकतिकदेदाश्च ऑलकण्ठा. विस्पेहिता: ४
दिव्यान्तरिक्षा भौमाक्ष फतालतलवासिनः । सूर्यपूआाकरा. नित्य. पूजयित्वॉशुसाल्निसू ॥
वहः सुप्रीतमनसों स्मेकपाै: समन्विताः । सवन्ति कुर्वन्तु मे निस्वै दरौ प्रयच्छात्तु पूरिताः ७
अपरावती पुरी गाय पूर्वभागे व्यवस्थित | विद्याघरणणाकीर्ना सिद्धगश्धर्वपेविता ॥
रम्रप्राकारस॑विरा महारत्रोपशोभिता
तक ज्वाल्मसमाकीणों. दीझ्ाझ्वरसमधुति- । पुरगो दहनो दैवो ज्वलनः पापनाज्ञातः ॥