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पुरीकों छौट गये । अर्जुन | तुम भी नारदजीके इन गुर्णोका

अवण करके भदामय होकर उनका पूजन करो ।

बाअव्यका यद वचन सुनकर अर्जनकों यषा विसय

हुआ । उनके अज्ञोमें रेमाश्च दो आया और उन्होंने मक्ति-

पूर्वक नारदजीके चरणोंमें प्रणाम किया । तत्पश्यात्‌ इस प्रकार

कटद्ा--पमुने ! आपके मुखसे इस गुप्तल्षेजका माहात्म्य छघुनकर

मले वृति नहीं होती, अतः पुनः उसका वर्जन कीजिये ।

नारदजीने कहा--अर्जुन ! पूर्वकाल्में मद्दायोगी

अक्षपाद गौतम मुनि हो गये रै, जो गोदायरी गज्जाकों यो

छाये ये और अहल्पाके पति थे । ये बढ़े शक्तिशाछी ये ।

उन्होंने गुक्चेजका माशारम्य सुनकर और उसे सर्वोत्तम

आनकर वहाँ योगसाधना करते हुए. मारी तपस्या प्रारम्भ

की । तदनन्तर महात्मा गौतमने योगसिद्धि प्रास करके इस

तोर्षमें गौतमेश्वर नामसे प्रसिद्ध शिवलिक्षकी स्थापना की ।

इस गौतमेश्वर छिङ्गको भलीरमोति नदलाकर उसपर चम्दनका

आप करके उसे भौति-भाँतिके पुष्पोंसे पूजे और गुग्गुलकी

धूप जछावे । ऐसा करनेयास्थ मनुष्य सब पापि मुक्त हो

रुद्रछोकमें प्रतिष्ठित होता दै ।

अजुन बोले--देवर्षे ! मैं योगके स्वरूपका तात्विक

विवेचन सुनना चाहता हूँ, क्योकि योगको समस्त उत्तम

००१५ भी उत्तम बताकर सब छोग उसकी बड़ी प्रशंसा

करते हैं ।

नारदजीने कहा-ऊुर्भे्ट ! मैं संक्षेफ्त ही उन्हें

योगका तत्व बतलछाता हूँ । इसके सुननेसे भी चित्त निर्मल

होता है, फिर सेवन करनेते तो कइना दी क्या है ! चित्तकी

वृत्तियोंको जो रोकना दै, वही योगका तत्व कदत्मता है ।

योगी पुरुष अशज्जफी विधिसे उसकी सधना करते ह । यम,

नियम, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्येयः ध्यान और

क्षमाषि--ये योगके आठ अन्न हैं | इस प्रकार योग आठ

अङ्कति युक्त बताया गया है । उन आठमेंसे प्रत्येका

लक्षण क्रमशः सुनो, जिसके साधनसे साधकक़ों योगकी प्राति

होती ह | असा, सत्व, अस्तेय, ब्रह्माचर्य तथा अपरिप्रह--

१. पाठछ्छयोगदर्शलफे अनुछार योगे भ्यढ सक्तेन भसन

की भौ गणना की गयी है, ध्येय तो साध्व दै । जतः छाषनका अङ्ग

नहीं दो स्या; इसलिये बहा साध्यफों आशक्ोमें नहीं क्रिया गया

है । यम-नियम आदि सन्य साते साधन उसमें भी ने दी हैं, जो

दं स्कल्दपुराणम दिये गये दें ।

ये पंच ध्वमः कहे गये है, इन सबका भी रूक्षण सुनो।जों

सम्पूर्ण प्राणियोंमे आत्ममाव रखकर सबके हितके लिये चे

करता दे, उसकी यह प्रशृत्ति *अद्दिंसाः कंदी गयी है। जिसका

वेदोमें भी विधान किया गया दै, ज्ये स्वयं देखा गवा हो,

शुना गवा हो; अनुमान किया गया हो) अथवा अपने

अनुभवर्म छाया गया हे, उसे दूसरोंकों पीढ़ा न देते इष

यथार्थरूपते बराणीद्वारा प्रकट करना “सत्य' कहव्मता है ।

अपने ऊपर आपत्ति पढ़नेपर भी मन, वाणी और क्रियाद्वारा

किसी प्रकार भी दूसरोंका घत न लेना “अस्तेय” कडा गया

है। मनः बाणी; शरीर और कियाद्वारा मैथुनसे स्वया वृर्‌ खना

यह्‌ संन्यासियोंका 'जह्मचर्य” है तथा ऋतुकालमें अपनी ही

फ्ल्लीफे साथ केवल एक बार समागम कटना तथा अन्य उमपमें

पूर्ण संगम रखना यह ग्रहस्पोंका श्नषषाचर्य' दै । मन, वाणी,

शरीर और क्रियाद्वारा सब ब्रत्तुओंका स्थाग कर देना यद

रुंन्वासियोंका “अपरिग्रह” है तथा खव वस्तुओंका संप्रद

रखते हुए. भी केवर मनसे उनका त्याग करना--उनके प्रति

ममता और आतक्तिका न होना--यह ग्रहस्थोंका 'अपसतिह!

माना गया है। ये पच यम बताये गये हैं। अब पाँच

मियमोंका अबज करो । शौच, सन्तोषः तप, जप ओर

गुरुमक्ति--ये पाँचे नियम हैं । अब इनका भी प्रयक्ूव्रथक

लक्षण भवण करो । शौच दो प्रकारका बतछाया जाता दै--

याह्ा और आभ्यन्तर । मिट्टी और जके जो शरीरकी शुद्धि

की जाती दै, चद ध्याम शौच! कहछाता हे और मनकी शुद्धि-

को “आन्तरिक शौच” कहते ६। न्यायले प्रात हुईं जीविका या

मिक्षा अथवा वार्ता ( कृषि-बाणिज्य आदि ) के द्वारा जो

कुछ प्राप्त हो, उसीसे लदा नयु रहना “सन्तोष” कहत्मता है ।

अपने आहारको घटाते हुए. साधक पुरुष जो चान्द्रायण

आदि बिह्ित तपका अनुष्ठान करता है, उसका नाम तपः

है। वेदोंके स्वाध्याय तथा प्रणवके अभ्यास आदिक *जप' कदा

गया है | भगवान्‌ शिव दी शनस्वरूप गुरु रै, उनमें ओ

भक्ति की जाती है; बद "गुरुभक्तिः मानी गयी हे । इस प्रकार

नियमों और समोका मलछीमाँति साधन करके विद्वान पुरुष

ि १, योगददांननै ज्ौच, छन्तोष, तप, स्वाध्चाय और ईश्वर

प्रणिवान--ये षच नियम कड़े गये हैं । यहां मो तोन तो वैसे

ही है। स्लाध्यायफे यानत यदो जप लिया गया है । परंतु जपके

रुक्षणमें स्वाध्याक्को प्ण करके दोनो धकत। मान कौ गयी दै ।

झ्िनकी मक्ति ही यहों यरमक्ति है, अतः वह भी दशस्वर-प्रनिधालसे

निग्न मंदी है ।

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